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________________ धर्मामृत ( सागार) अथ समदत्तिविधानोपदेशार्थमादौ समयिकं स्तुवन्नाह स्फुरत्येकोऽपि जैनत्वगुणो यत्र सतां मतः । तत्राप्यजनैः सत्पात्रोत्यं खद्योतवद्रवौ ॥५२॥ एकः ज्ञानतपोरहितः, जैनत्वगुणः-जिन एव देवो मे भवार्णवोत्तारकत्वादित्यभिनिवेशधर्मः ॥५२॥ अथ श्रेयोथिनां जनानुग्रहानुभावमाह वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्रशः। दलादिसिद्धान् कोऽन्वेति रससिद्धे प्रसेदुषि ॥५३॥ दलादि-आदिशब्देन वर्णोत्कर्षादि । प्रसेदुषि-प्रसन्ने सति ॥५३॥ अथ नामादिनिक्षेपविभक्तानां चतुर्णा जनानां पात्रत्वं यथोत्तरं विशिनष्टि नामतः स्थापनातोऽपि जैन : पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः ।।५४।। पात्रायते तरां-अजैनपात्रेभ्योऽतिशयेन संयुज्यमाननिर्वाणकारणगुणलक्षणपात्रवदाचरति, सम्यक्त्वसहकारिपुण्यास्रवणकारणत्वात् ॥५४॥ तत्पर रहते हैं उन्हें समयदीपक या समयद्योतक कहते हैं। उनका भी समादर करना कर्तव्य है। इन पाँच दानोंमें-से श्रमण और श्रावक मुमुक्षुओंको रत्नत्रयकी भावनासे जो दान दिया जाता है वह तो पात्रदत्ति है। तथा क्षुधापीड़ित गृहस्थोंको वात्सल्य भावसे जो यथायोग्य दिया जाता है वह समदत्ति है। यह विभाग कर लेना चाहिए ।।५।। आगे समदत्तिका उपदेश करते हैं जिसमें साधु जनोंको इष्ट एक भी जैनत्व गुण चमकता है उसके सामने सत्पात्र भी अजैन सूर्य के सामने जुगनूकी तरह प्रतीत होते हैं ।।२।। विशेषार्थ-जिन ही मेरे आराध्यदेव हैं क्योंकि संसार-समुद्रसे पार लगाते हैं, इस प्रकारके अभिप्रायको यहाँ जैनत्व गुण कहा है। उसके साथमें ज्ञान और तप न होनेसे उसे एक कहा है । जैसे सूर्य के सामने जुगनू निष्प्रभ हो जाते हैं उसी तरह जिसमें एक भी जैनत्व गुण भासमान है उस व्यक्तिके सामने मिथ्याज्ञान और मिथ्यातपसे युक्त मिथ्यादृष्टि धार्मिक प्रभाहीन हो जाते हैं ॥५२॥ आगे जैनपर अनुग्रह करनेका महत्त्व बतलाते हैं एक भी जैनका उपकार करना श्रेष्ठ है, हजारों भी अजैनोंको उपकृत करना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि पारेसे गरीबी, रोग, बुढ़ापा आदिको दूर कर सकने की शक्तिसे युक्त पुरुषके प्रसन्न होनेपर बनावटी सुत्रणे आदिको बनाने में प्रसिद्ध पुरुषको कौन पसन्द करता है ? ॥५३॥ विशेषार्थ-यह कथन धार्मिकताको दृष्टि में रखकर किया गया है । जैनधर्म प्रकारान्तरसे आत्मधर्म ही है। जैन वही है जो आत्मा के निकट है। उसका उपकार करनेसे आत्मधर्मको बल मिलता है और अनात्मधर्मका परिहार होता है। आत्मासे भिन्न पदार्थों में आसक्ति ही अनात्मधर्म है । उसको बल नहीं देना धार्मिकका कर्तव्य है ॥५३॥ आगे नाम आदिके निक्षेपसे चारप्रकारके जैनों में उत्तरोत्तर विशेष पात्रता बतलाते हैं नामसे तथा स्थापनासे भी जैन अजैन पात्रोंसे विशिष्ट पात्र होता है। द्रव्यसे जैन पुण्यवानोंको प्राप्त होता है और भावसे जैन तो महाभागोंको ही मिलता है ॥५४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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