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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय) 'दीक्षायात्राप्रतिष्ठाद्याः क्रियास्तद्विरहे कुतः। तदर्थं परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ।।' [ सो. उपा. ८१०-८११] [ समयद्योतक:-वादित्वादि-1 ना मार्गप्रभावकः । नैष्ठिक:-मूलोत्तरगुणश्लाध्यस्तपोऽनुष्ठाननिष्ठः । उक्तं च 'मूलोत्तरगुणश्लाघ्यैः तपोभिनिष्ठितस्थितिः । साधुः साधु भवेत्पूज्यः पुण्योपार्जनपण्डितैः ॥ [ सो. उपा. ८१२ ] गणाधिपः-धर्माचार्यस्तादृग्गृहस्थाचार्यो वा । उक्तं च 'ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वण्यपुरःसरः।। सुरिव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ॥' [ सोम. उपा. ८१३ ] धिनुयात्-प्रीणयेत् । धर्मानुष्ठाने बलाधानेनोपकुर्यादित्यर्थः । यदाह 'वयं-मध्य-जघन्यानां पात्राणामुपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्त्यविधायिना ॥' [ अमि. श्रा. ९।१०७ ] दानादिना-दान-मानासनसंभाषणादिना । यथोत्तरगुणरागात्-यो य उत्तरः समयिकादीनां मध्ये तस्य तस्य गुणेषु प्रीतितः । अथवा यो यो यस्योत्कृष्टो गुणस्तत्र तत्र प्रीत्या तं धिनुयादिति योज्यम् । अत्र श्रमणोपासकेषु मुमुक्षुषु रत्नत्रयानुग्रहबुद्धया संतर्पणं पात्रदत्तिर्बुभुक्षुषु च गृहस्थेषु वात्सल्येन यथार्हमनुग्रहः समानदत्तिरिति विभागः ॥५१॥ पं. आशाधरजी-ने किया है। सोमदेवजीने पात्रके पाँच भेद किये हैं-समयी, साधक, साधु, आचार्य और समयदीपक । गृहस्थ हो या साधु, जो जैनधर्मका अनुयायी है उसे समयी या समयिक कहते हैं । ये साधर्मी पात्र यथाकाल प्राप्त होनेपर सम्यग्दृष्टियोंको उनका आदर करना चाहिए। जिनकी बुद्धि परोक्ष अर्थको जाननेमें समर्थ है उन ज्योतिषशास्त्र, मन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्रके ज्ञाताओंका तथा प्रतिष्ठाशास्त्रके ज्ञाता प्रतिष्ठाचार्योंका भी सम्मान करना चाहिए। यदि ये न हों तो मुनिदीक्षा, तीर्थयात्रा और बिम्बप्रतिष्ठा वगैरह धार्मिक क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं; क्योंकि मुहूर्त देखनेके लिए ज्योतिर्विदोंकी, प्रतिष्ठा करनेके लिए मन्त्र शास्त्रके पण्डितोंकी आवश्यकता होती है। यदि अन्य धर्मावलम्बी ज्योतिषियों और मान्त्रिकोंसे पूछना पड़े तो अपने धर्म की उन्नति कैसे हो सकती है ? तथा अपने मुहूर्तविचारमें भी दूसरोंसे अन्तर है। वैवाहिक विधि दूसरे करावे तो उनमें तो श्रद्धा ही नहीं होती। अतः जैन मन्त्रशास्त्र, जैन ज्योतिषशास्त्र और जैन क्रियाकाण्डके ज्ञाताओंका सम्मान ना आवश्यक है। मल गण और उत्तर गणोंसे युक्त तपस्वीको साध कहते हैं। उन्हें ही आशाधरजीने नैष्ठिक कहा है। उन्हें भी भक्तिभावसे पूजना चाहिए । जो ज्ञानकाण्ड और आचारमें चतुर्विध संघके मुखिया होते हैं तथा संसार-समुद्रसे पार उतारनेमें समर्थ हैं उन्हें आचार्य या गणाधिप कहते हैं। उनकी देवके समान आराधना करनी चाहिए। जो लोकज्ञता, कवित्व आदिके द्वारा और शास्त्रार्थ तथा वक्तृत्व कौशल-द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना करने में १. 'समयी साधकः साधुः सूरिः समयदीपकः । तत्पुनः पञ्चधा पात्रमामनन्ति मनीषिणः।' -सो. उपा. ८०८ श्लो.। २. 'लोकवित्वकवित्वाद्यैर्वादवाग्मित्वकौशलैः । मार्गप्रभावनोद्युक्ताः सन्तः पूज्या विशेषतः ॥' -सो. उपा. ८१४ श्लो.। सा.-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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