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________________ ३ ९ १२ १५ १८ ८८ अथ यदर्थ यद्दानं कर्तव्यं तत्तदर्थमाह धर्मामृत ( सागार) धर्मपात्राण्यनुग्राह्याण्यमुत्र स्वार्थसिद्धये । कार्यपात्राणि चात्रै कोत्यै त्वौचित्यमाचरेत् ॥५०॥ अनुग्राह्याणि - उपकार्याणि । अमुत्र स्वार्थ: - स्वर्गादिसुखम् । अत्रैव - इहैव जन्मनि स्वार्थसिद्धये । उक्तं च- 'परलोकधिया कश्चित्कश्चिदैहिकचेतसा । औचित्य मनसा कश्चित्सतां वित्तव्ययस्त्रिधा || परलोकैहिकौचित्येष्वस्ति येषां न धीः समा । धर्मः कार्यं यशश्चेति तेषामेतत्त्रयं कुतः ॥ [ सो. उपा. ७६९-७७० ] ॥५०॥ अथ धर्मपात्राणां यथागुणं सन्तर्पणीयत्वमाह - समयिक - साधक - समयद्योतक नैष्ठिक गणाधिपान् धिनुयात् । दानादिना यथोत्तरगुणरागात्सद्गृही नित्यम् ॥५१॥ समायिकः - गृही यतिर्वा जिनसमयश्रितः । उक्तं च'गृहस्थो वा यतिर्वापि जैनं समयमास्थितः । यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥' [ सो. उपा. ८०९ ] साधक: ज्योतिषादिवित् । उक्तं च Jain Education International 'ज्योतिमन्त्रनिमित्तज्ञः सुप्रज्ञः काय कर्मसु । मान्यः समयिभिः सम्यक् परोक्षार्थं समर्थंधीः ॥ [ आगे जिस हेतु से जो दान करना चाहिए, उसे बतलाते हैं कल्याणके इच्छुक पाक्षिक श्रावकको परलोकमें स्वर्गादि सुख-सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय की साधनामें तत्पर गुरुओं की सेवा आदि करनी चाहिए। और इसी जन्म में पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए अर्थ में सहायक कर्मचारियों का काम में, सहायक पत्नीका उपकार करना चाहिए, उनकी हर तरहसे संरक्षा-सम्पोषण करना चाहिए। तथा कीर्ति के लिए उचित कार्य करना चाहिए अर्थात् दान और प्रिय वचनोंसे दूसरोंको सन्तुष्ट करना चाहिए ॥ ५० ॥ आगे धर्मपात्रोंको उनके गुणोंके अनुसार सन्तुष्ट करनेकी प्रेरणा करते हैं 1 जैनधर्मके पालक गृहस्थ या मुनिको समयिक कहते हैं । ज्योतिष मन्त्र आदि लोकोपकारक शास्त्रोंके ज्ञाताको साधक कहते हैं । जो शास्त्रार्थ आदिके द्वारा जिनमार्गकी प्रभावना करता है उसे समयद्योतक कहते हैं । जो मूल गुण और उत्तर गुणोंसे प्रशंसनीय तपमें लीन होता है उसे नैष्ठिक कहते हैं और धर्माचार्य या उसीके समान गृहस्थाचार्यको गणाधिप कहते हैं। इनमें जो-जो उत्कृष्ट हों उनके गुणों में अनुरागसे या जिसके जो उत्कृष्ट गुण हों उनमें अनुरागसे पाक्षिक श्रावकको सदा दान-सम्मान, आसनदान आदिके द्वारा पाँचोंको सन्तुष्ट करना चाहिए ॥ ५१ ॥ विशेषार्थ - उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रोंको दान देनेका कथन तो अनेक शास्त्रों में मिलता है | यह पात्रदान कहलाता है । आचार्य जिनसेनजी ने अपने महापुराण में पात्रदान, दयादान, समक्रियादान और अन्वयदान ये चार भेद करके दानकी दिशाको नयी गति दी है। उसीका प्रतिफल हम सोमदेव के उपासकाध्ययनमें पाते हैं । उन्हींका अनुसरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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