________________
३
६
९
९२
धर्मामृत ( सागार
अथ धर्मभ्यः कन्यादिदाने हेतुमाह -
आधानादिक्रियामन्त्रव्रताद्यच्छेदवाञ्छया । प्रदेयानि सधर्मेभ्यः कन्यादीनि यथोचितम् ॥५७॥ मन्त्राः—प्रत्यासत्तेराधानादि क्रियासम्बन्धिन एवार्षोक्ताः अपराजितमन्त्रो वा ॥५७॥ अथ सम्यक् कन्यादानविधि तत्फलं चाह -
निर्दोषां सुनिमित्तसूचितशिवां कन्यां वराहैर्गुणैः
स्फूर्जन्तं परिणाय्य धर्म्यविधिना यः सत्करोत्यञ्जसा । दम्पत्योः स तयोस्त्रिवर्गघटनात्त्रवगकेष्वग्रणी
भूत्वा सत्समयास्त मोहमहिमा कार्ये परेऽप्यूर्जति ॥५८॥
दानके योग्य वही पात्र होता है जो अपना सधर्मा हो, अर्थात् जिसका धर्म - क्रिया, मन्त्र, व्रत वगैरह अपने समान हो ॥५६॥
आगे सधर्माको ही कन्या क्यों देनी चाहिए, उसका कारण कहते हैं—
गर्भाधान आदि क्रियाएँ, उन क्रियाओं सम्बन्धी मन्त्र अथवा पंचनमस्कार मन्त्र और मद्य आदिके त्यागरूप व्रतोंको सदा बनाये रखनेकी इच्छासे यथायोग्य कन्या आदि साधर्मीको देना चाहिए ॥५७॥
विशेषार्थ - जैन धर्म की धार्मिक क्रियाएँ, जिनका वर्णन महापुराणके ३८-३९ आदि पर्वोंमें भगवज्जिनसेनाचार्यने किया है, तथा उनके मन्त्र और पंच नमस्कार मन्त्र, व्रत नियम आदि अन्य धर्मोसे भिन्न है । यदि लड़की अजैन कुलमें जाती हो तो उसके व्रत, नियम, देवपूजा, पात्रदान सब छूट जाते हैं। इस तरहसे उसका धर्म ही छूट जाता है । इसलिए कन्या साधर्मीको ही देनी चाहिए। धर्मके सामने संसारका ऐश्वर्य तुच्छ है । धर्मके रहने से वह भी मिल जाता है और धर्मके अभाव में प्राप्त भोग भी नष्ट हो जाते हैं । इसीसे चारित्रसार में भी समदत्तिका स्वरूप बतलाते हुए अपने समान धर्म कर्मवाले मित्रको जो उत्तम गृहस्थ हो, कन्या, भूमि, स्वर्ण, हाथी, रथ, रत्न आदि देनेका विधान किया है। यदि अपने समान न मिले तो मध्यम पात्रको भी देनेका विधान किया है । किन्तु विधर्मी या अधर्मीको देनेका विधान नहीं किया ||५७॥
आगे कन्यादान की विधि और उसका फल कहते हैं
जो गृहस्थ सामुद्रिक शास्त्र में कहे गये दोषोंसे रहित तथा भावी शुभाशुभको जानने के उपायोंके द्वारा ज्योतिर्विदोंने जिसका सौभाग्य सूचित कर दिया है, उस कन्या को वरके योग्य कुल, शील, परिवार, विद्या, सम्पत्ति, सौरुप्य, योग्यवय आदि गुणोंसे विचारशील मनुष्योंके चित्तमें जँचनेवाले वरके साथ धार्मिक विधिसे विवाह करके श्रद्धापूर्वक साधर्मीका सत्कार करता है, वह गृहस्थ अपनी कन्या और उसके वरके धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ के सम्पादन करनेसे धर्म, अर्थ और कामका पालन करनेवाले गृहस्थों में मुखिया होकर जिनागम अथवा आर्य पुरुषों की संगतिसे चारित्रमोहनीय कर्मकी गुरुता दूर होनेपर पारलौकिक कार्यमें भी समर्थ होता है ॥५८॥
१. 'समदत्तिः स्वसमक्रियाय मित्राय निस्तारकोत्तमाय कन्याभूमिसुवर्णहस्त्यश्वरथ रत्नादि दानं स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् । चारित्रसार, पृ. २१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org