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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय ) अथ सकलपूज्यपूजाविधिप्रकाशनेनानुग्राहिकायाः सम्यक् श्रुतदेवतायाः पूजायां सज्जयन्नाह - यत्प्रसादान्न जातु स्यात् पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोडुमरां गिरम् ॥४३॥ स्यात्कारोड्डुमरां—स्यात्पदप्रयोगेण सर्वथैकान्तवादिभिरजय्यामित्यर्थः । यथाह— 'दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः । स्यात्कारजीविता जीयाज्जेनीसिद्धान्तपद्धतिः ॥' अपि च - मिथ्याज्ञानतमोवृत लोकैकज्योतिरित्यादि ॥ ४३ ॥ अथ श्रुतपूजकाः परमार्थतो जिनपूजका एवेत्युपदिशति - ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् । चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥४४॥ नेत्यादि । तथा पठन्ति - 'श्रुतस्य देवस्य न किंचिदन्तरम्' इत्यादि ॥४४॥ शरणका मतलब है, कष्टको दूर करना और अनिष्टसे रक्षाका उपाय करना । तथा मंगलका अर्थ है पापकी हानि और पुण्यका संचय । इन चारोंके पजनसे ये सब कार्य होते हैं । इनके लिए किसी अन्य देवी- देवताकी शरण लेना उचित नहीं है, इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग अपने ही पूर्वकृत कर्मोंका परिणाम है अतः उसे हम स्वयं ही अपने शुभ कर्मोंके द्वारा दूर कर सकते हैं ||४२ ॥ ] सम्यक् श्रुत भी एक देवता है । वह सब पूज्योंकी पूजाकी विधि बतलाकर हमारा उपकार करती है | अतः उसकी पूजाका उपदेश करते हैं देवने ८५ जिसके प्रसादसे कभी भी पूज्य अर्हन्त सिद्ध साधु और धर्मकी पूजा में यथोक्त विधि का लंघन नहीं होता, उस जगत् में पूज्य और स्यात् पदके प्रयोगके द्वारा एकान्तवादियोंसे न जीती जा सकनेवाली श्रुतदेवताको पूजना चाहिए ॥ ४३ ॥ विशेषार्थ -- श्रुतदेवता या जिनवाणी के प्रमादसे ही हमें यह ज्ञात होता है कि पूजने योग्य कौन हैं और क्यों हैं ? तथा उनकी पूजा हमें किस प्रकार करनी चाहिए । इसलिए जिनवाणी भी पूज्य है । अगर शास्त्र न होते तो हम देवके स्वरूपको भी नहीं जान सकते थे । फिर जिनवाणी स्याद्वादनय गर्भित है । स्याद्वाद कथनकी वह शैली है जिससे अनेकान्तात्मक वस्तुका कथन करते हुए किसी प्रकार विसंवाद पैदा नहीं होता । वस्तु नित्य भी और अ भी है । द्रव्य रूपसे नित्य है और पर्याय रूपसे अनित्य है । इसके विपरीत एकान्तवादी दर्शन किसीको नित्य और किसीको अनित्य मानते हैं । जैसे उनके मतसे आकाश नित्य ही है और दीप अनित्य ही है । किन्तु जेन दृष्टिसे आकाश और दीप दोनों ही नित्य भी हैं और अनित्य भी हैं । अतः स्याद्वादी जैन दर्शन एकान्तवादी दर्शनोंके द्वारा अजेय है । वह वस्तुके यथार्थ स्वरूपको कहता है । उसकी उपलब्धि भी हमें जिनवाणी या श्रुतदेवता के प्रसादसे ही हुई है अतः उसको भी पूजना हमारा कर्तव्य है || ४३ ॥ आगे कहते हैं कि जो श्रुतदेवता की पूजा करते हैं वे परमार्थसे जिनदेवकी ही पूजा करते हैं Jain Education International जो भक्तिपूर्वक श्रुतको पूजते हैं वे परमार्थसे जिनदेवको ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञ 'और देव में थोड़ा-सा भी भेद नहीं कहा है ॥ ४४ ॥ श्रुत For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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