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________________ धर्मामृत ( सागार) अथ साक्षादुपकारकत्वेन गुरूणामुपासने नित्यं नियुक्त उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तः शिवाथिभिः । तत्पक्षताक्ष्य पक्षान्तश्चरा विघ्नोरगोत्तराः॥४५॥ तदित्यादि। तेषां गुरूणां पक्षस्तदायत्ततया वृत्तिः स एव तायपक्षो गरुडपतत्र तत्रान्तर्मध्ये चरन्ति तदन्तश्चराः विघ्नोरगोत्तरा भवन्ति । विघ्नाः प्रक्रमाद्धर्मानुष्ठानविषयेऽन्तरायास्त एवोरगाः सस्तेिभ्य उत्तराः है परे तद्रचारिणः । धर्मानुष्ठानप्रत्यूहस भिभूयन्ते इति भावः । उक्तं च 'देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥' [ पद्म. पञ्च. ६७ ] ॥४५॥ अथ गुरूपास्तिविधिमाह निजिया मनोवृत्या सानुवृत्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद्विनयेनानुरञ्जयेत् ॥४६॥ सानुवृत्या-छन्दानुवृत्त........पं........सहितया । यन्नीतिः पूर्व चित्तं प्रभो यं ततस्तदनुवर्तनम् । इति संक्षेपतः प्रोक्ता सेवाचर्यानुजीविनाम् ॥' [ ] ॥४६॥ अथ विनयेनानुरञ्जयेदित्यस्यार्थव्यक्त्यर्थमाह विशेषार्थ-जिनदेवके मुखसे निकली और गणधरके द्वारा स्मृतिमें रखकर बारह अंगोंमें रची गयी जिनवाणीको ही श्रुत कहते हैं। श्रुतका शब्दार्थ होता है सुना हुआ। गणधरने भगवान्के मुखसे जो सुना वही श्रत है। अतः जिनदेव और उनकी वाणीमें, जो परम्परासे आचार्यों द्वारा शास्त्रों में निबद्ध है, कोई अन्तर कैसे हो सकता है । व्यक्ति अपने वचनोंके कारण ही पूज्य बनता है । व्यक्तिके वचन व्यक्तिसे भिन्न नहीं होते ॥४४॥ ___इस प्रकार संक्षेपसे देवपूजाकी विधिको कहकर आगे साक्षात् उपकारी होनेसे गुरु ओंकी भी नित्य उपासना करनेका उपदेश देते हैं परमकल्याणके इच्छुक पाक्षिक श्रावकोंको प्रमाद छोड़कर गुरुओंकी-धर्मकी आराधनामें लगानेवालोंकी नित्य उपासना करनी चाहिए। क्योंकि, जैसे गरुड़के पंख पास रहनेसे सर्प दूर रहते हैं वैसे ही गुरुओंके अधीन होकर चलनेवालोंके धार्मिक कार्यसे विघ्न दूर रहते हैं अर्थात् उनके कार्यों में विघ्न नहीं आते हैं ॥४५।। गुरुकी उपासनाकी विधि कहते हैं अपना कल्याण चाहनेवालेको छलरहित और अनुकूलता सहित मनोवृत्तिके द्वारा गुरुके मन में प्रवेश करके राजाकी तरह विनयसे गुरुको सदा अपने में अनुरक्त करना चाहिए । अर्थात् जैसे सेवक वर्ग अपने निश्छल व्यवहार और विनयपूर्वक आज्ञा पालनसे राजाके मनमें प्रवेश करके उसे अपना अनुरागी बना लेता है उसी तरह गुरुके आनेपर खड़े होना आदि कायिक विनयसे, हित-मित भाषण आदि वाचनिक विनयसे और गुरुके प्रति शुभ चिन्तन आदि मानसिक विनयसे गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए गुरुके मनमें अपना स्थान बनाना चाहिए॥४६॥ 'गुरुको विनयसे अनुरक्त करे' इसको स्पष्ट करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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