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________________ धर्मामृत ( सागार) सत्रमपि-अपिशब्दात प्रपामपि । अनुकम्प्यानां-क्षत्तुष्णार्तानां व्याधितानां च । वाटिकादिआदिशब्दाद् वापीपुष्करिण्यादि । अपिशब्देनानादरार्थेन विषयसुखार्थ कृष्यादिकं कुर्वतां यद्यपि धर्मबुद्ध्या वाटिकादि विधापने लोकव्यवहारानुरोधादोषो न भवति । तथापि तदकुर्वतामेव क्रयक्रीतेन पुष्पादिना तेषामपि जिनं पूजयतां महान् गुणो भवतीति ज्ञाप्यते । यत्पठन्ति 'एषा तटाकमिषतो ननु दानशाला मत्स्यादयो रसवति प्रगुणा सदैव। पात्राणि ढंकबकसारसचक्रवाकाः कीदृग्भवेदिह हि पुण्यमिदं न विद्मः ॥ [ ]॥४०॥ अथ नियाजभक्त्या येन केनापि प्रकारेण जिनं सेवमानानां सर्वदुःखोच्छेदमितस्ततः समस्तसमीहितार्थसम्पत्ति चोपदिशति यथाकथंचिद् भजतां जिनं नियाजचेतसाम् । नश्यन्ति सर्वदुःखानि दिशः कामान् दुहन्ति च ॥४॥ यथाकथंचित-ग्रामगृहादिदानप्रकारेणापि ॥४१॥ अथैवं जिनपजां विधेयतयोपदिश्य तद्वत्सिद्धादिपूजामपि विधेयतयोपदेष्टुमाह जिनानिव यजन् सिद्धान् साधून धर्म च नन्दात। तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मङ्गलं च यत् ॥४२॥ साधून-सिद्धि साधयन्तीति अन्वर्थतामात्रानुसरणादाचार्योपाध्याययतीन् ॥४२॥ विशेषार्थ—यह सब पाक्षिक श्रावकके लिए कथन है। पाक्षिक श्रावक जब विषयसुखके लिए कृषि आदि कर्म करता है तो उसे परोपकारकी भावनासे भूखसे पीड़ित जनोंके लिए निःशुल्क भोजन प्राप्तिका स्थान तथा रोगियोंके लिए चिकित्सालय वगैरह भी बनवाना चाहिए । ग्रन्थकारने पूजाके निमित्त पुष्प प्राप्त करने के लिए बगीचा लगाने में भी दोष नहीं बताया है । तथापि वह बगीचा न लगाकर और बाजारसे पुष्प खरोदकर उनसे पूजा करना उत्तम मानते हैं। पुष्पोंमें होनेवाली अशुद्धि तथा हिंसाके कारण उत्तर कालमें अक्षतोंको पीला रँगकर उनमें पुष्पकी स्थापना की गयी ॥४०॥ आगे कहते हैं कि निष्कपट भक्तिसे जिस-किसी भी प्रकारसे जिन भगवान्की पूजा करनेवालोंके सब दुःख दूर होते हैं और समस्त इच्छित पदार्थों की प्राप्ति होती है अभिषेक, पूजा, स्तवन आदि जिस किसी भी प्रकारसे जो निष्कपट चित्तसे जिन भगवानको भजते हैं उनके सब दुःख नष्ट हो जाते हैं और दिशाएँ उनके मनोरथोंको पूरा करती हैं । अर्थात् जिनदेवके पूजक जो-जो चाहते हैं वह उन्हें सर्वत्र प्राप्त होता है ।।४१॥ __ इस प्रकार जिनपूजाको कर्तव्य बतलाकर उसीकी तरह सिद्ध आदि पूजाको भी करनेका उपदेश देते हैं जिनदेवकी तरह मुक्तात्माओं, साधुओं और रत्नत्रय रूप धर्मको पूजनेवाला अन्तरंग और बहिरंग विभूतिसे सम्पन्न होकर आनन्द करता है, क्योंकि वे भी जिनदेवकी तरह लोकमें उत्कृष्ट हैं, शरण हैं और मंगलरूप हैं ॥४२॥ विशेषार्थ-'चत्तारि मंगलं' आदिमें अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्मको मंगलस्वरूप, उत्कृष्ट तथा शरणभूत कहा है। साधुसे आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों लिये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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