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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय )
पाद - जानु - कटि-ग्रीवा - शिरः पर्यन्तसंश्रयम् । स्नानं पञ्चविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणाम् || ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भकर्मणः । यद्वा तद्वा भवेत्स्नानमन्त्यमन्यस्य तु द्वयम् ॥ सर्वारम्भविजृम्भस्य ब्रह्मजिह्मस्य देहिनः । अविधाय बहिः शुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ॥ अद्भिः शुद्धि निराकुर्वन् मन्त्रमात्रपरायणः । स मन्त्रः शुद्धिमन्नं भुक्त्वा हत्वा विहृत्य च ॥ आप्लुतः संप्लुतश्चान्तः शुचिवासो विभूषितः । मौनसंयम संपन्नः कुर्याद्देवार्चनाविधम् || दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोवृताननः ।
असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥' [ सो. उपा. ४६४-४६९, ४७२-४७३ ]
स्नानगुणा यथा
'दोपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जो बलप्रदम् । कण्डू-मल-श्रम-स्वेद-तन्द्रा तृट् - दाह- पापजित् ॥' [ अष्टांगहृ. २।१६ ] ॥३४॥
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शुद्धि होती है। देवपूजा करनेके लिए गृहस्थको सदा स्नान करना चाहिए । किन्तु मुनिको दुर्जनसे छू जानेपर ही स्नान करना चाहिए । अन्य स्नान मुनिके लिए वर्जित है । जिस जलाशय में खूब पानी हो, और वायु तथा धूप उसे खूब लगती हो, उसमें घुस करके स्नान करना उचित है । किन्तु अन्य जलाशयोंका जल छानकर ही काम में लाना चाहिए । रत्नमाला में कहा है कि पत्थर से टकरानेवाला जल दोपहर तक प्रासुक माना गया है । वापिकाका तपा हुआ जल तत्काल प्रासुक है। यह जल मुनियोंके शौच और गृहस्थोंके स्नानके लिए होता है शेष सब जल अप्रासुक हैं। धर्म संग्रह श्रावकाचार में कहा है-नदियों और तालाबोंका गहरा जल जो वायु और धूपसे तपा हो वह भी स्नानके योग्य है । वर्षाका जल, पत्थर और घटीयन्त्रसे ताड़ित जल तथा वापिकाका सूर्यसे तप्त जल प्रासुक माना गया है । स्नान के पाँच प्रकार हैं— पैर तक घुटनों तक, कमर तक, गरदन तक और सिर तक । दोष के अनुसार स्नान करना उचित है । जो ब्रह्मचारी हैं, सब प्रकारके आरम्भोंसे निवृत हैं वह इनमें से कोई भी स्नान कर सकते हैं । किन्तु अन्य गृहस्थोंको तो सिर या गरदन से ही स्नान करना चाहिए। जो सब प्रकारके आरम्भों में लगा रहता है और ब्रह्मचारी भी नहीं है उसे बाह्य शुद्धि किये बिना देवपूजाका अधिकार नहीं है। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहने, फिर शरीरको आभूषणोंसे भूषित करे, और चित्तको वशमें करके मौन तथा संयमपूर्वक जिनेन्द्रकी पूजा करे ||३४||
१. तद्द्वयम् ।-मु.
२. शुद्धभा नूनं । - मु.
३. संप्लुतस्वान्तः । मु. 1
४. सोचिताननः, मु.
५. रत्नमाला ६३, ६४ श्लो. ।
६. धर्म. श्री. पू. २१८ ।
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