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________________ ३ ६ ९ १२ १५ १८ ७८ धर्मामृत ( सागार) दृक्तमपि यष्टारमहंतोऽभ्युदयश्रियः । श्रयन्त्यहम् पूर्विकया कि पुनव्रतभूषितम् ||३२|| स्पष्टम् ॥३२॥ अथ जिनपूजान्तराय परिहारोपायविधिमाह - यथास्वं दानमानाद्यैः सुखीकृत्य विधर्मणः । स्वधर्मणः स्वसात्कृत्य सिद्धयर्थी यजतां जिनम् ||३३|| [ सर्वधर्म- ] बाह्यान्वा । सुखीकृत्य - अनुकूलान्कृत्वा । विधर्मण: - [ शिवादिधर्मरतान् ] सधर्मणः - जिनधर्मभावितान् । सिद्धयर्थी – जिनपूजा संपूर्णतां स्वात्मोपलब्धि वाऽभीप्सन् ॥३३॥ अथ स्नानापास्तदोषस्यैव गृहस्थस्य स्वयं जिनयजनेऽधिकारित्वमन्यस्य पुनस्तथाविधेनैवान्येन तद्यजनमित्युपदेशार्थमाह स्त्र्यारम्भसेवासंक्लिष्टः स्नात्वाऽऽकण्ठमथाशिरः । स्वयं यजेतार्हत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् ||३४|| स्त्रीत्वादि । स्त्रीसेवया कृष्यादिकर्मसेवया च । संक्लिष्टः - समन्तात्काये मनसि चोपतप्तः । प्रस्वेदतन्द्रालस्य- दौर्मनस्यादि दोषदूषितकायमनस्क इत्यर्थः । स्नात्वेत्यादि । एतेन यथादोषं स्नानोपदेशादागुल्फमाजान्वाकटि च स्नानमनुजानाति । यदाह Jain Education International 'नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितम् ॥ वातातपादिसंस्पृष्ठे भूरितोये जलाशये । अवगाह्याचरेत्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भजेत् ॥ जब सम्यग्दर्शनसे पवित्र भी जिन भगवान् के पूजकको पूजा, धन, आज्ञा और ऐश्वर्ययुक्त परिवार काम भोग आदि सम्पदा 'मैं पहले' 'मैं पहले' करके प्राप्त होती है तब यदि वह एक देश से हिंसा आदिके त्यागरूप व्रतोंसे भूषित हो तो कहना ही क्या है ? अर्थात् व्रती पूजकको भोगसम्पदा और भी विशेष रूप से प्राप्त होती है ||३२|| आगे जिनपूजा में आनेवाले विघ्नोंको दूर करनेका उपाय बताते हैं जिन पूजाकी सम्पूर्णता के इच्छुक पूजक को अन्य धर्मावलम्बियोंको यथायोग्य दानसम्मान आदिके द्वारा अनुकूल बनाकर और साधर्मियोंको अपने साथ में लेकर जिन भगवान्की पूजा करनी चाहिए ||३३|| आगे कहते हैं कि स्नानके द्वारा शुद्ध गृहस्थको ही स्वयं जिनपूजन करनेका अधिकार है गृहस्थका शरीर और मन स्त्रीसेवन तथा कृषि आदि आरम्भ में फँसे रहने से दूषित रहता है | अतः उसे दोषके अनुसार मस्तकसे या कण्ठसे स्नान करके ही स्वयं अर्हन्तदेव के चरणोंकी पूजा करनी चाहिए। यदि स्नान न करे तो दूसरे स्नान किये हुएके द्वारा पूजन करावे ||३४|| विशेषार्थ - देवपूजनके लिए अन्तरंग शुद्धि और बहिरंग शुद्धि आवश्यक है । चित्तसे बुरे विचारोंको दूर करनेसे अन्तरंग शुद्धि होती है और विधिपूर्वक स्नान करने से वहिरंग १. सधर्म - मु. । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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