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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) ७७ निरुपरमा-अविनश्वराः। तत्तद्गुणाः-व्यवहारेण दर्शनविशुद्धयादिभावनाप्रमुखकल्याणपञ्चकलक्षणाः । निश्चयेन च चिदचिदज्ज्ञेयद्रव्याकारविशेषस्वरूपाः । अनघेः-हठहतत्वाहृद्यत्वस्वान्यभुक्त शेषत्वादि पापहेतुदोषमुक्तः । तद्विधोपाधिसिद्धः-निष्पापसाधननिष्पन्नः । चारूणि-दोषनिरासाद्गुणालंकार ३ स्वीकाराच्च सहृदयहृदयावर्जकानि । तत्पदाय--तीर्थकरत्वाय । एकस्या अपि दर्शनविशुद्धरुत्कर्षस्य तीर्थकरत्वाख्यपुण्यविशेषबन्धहेतुत्वसिद्धेः, तत्पूर्वकत्वाद्विनयसंपन्नतादीनां तत्कारणान्तराणाम् । उक्तं च 'आराध्य दर्शनविशुद्धिपुरस्सराणि विश्वेश्वरत्वपद चारणकारणानि । वघ्नाति तीर्थंकर कर्म समग्रकर्म निर्मूलनाय विभुरद्भुतवीयंसारः ॥' [ ]॥३१॥ अथ व्रतविभूषितस्य जिनयष्टुरिष्टफलविशेषसिद्धिमभिधत्ते विशेषार्थ-यह जिनपूजाकी विधि है । पूजा स्थापनापूर्वक की जाती है और स्थापना तदाकार भी होती है और अतदाकार भी होती है। सोमदेवने अपने उपासकाचारमें पूजकके दो भेद किये हैं-एक पुष्प आदिमें पूज्यकी स्थापना करके पूजन करनेवाला और दूसरा प्रतिमाका अवलम्बन लेकर पूजन करनेवाला। उन्होंने फल, पत्र, पाषाण आदिमें तथा अन्य धर्मकी मूर्ति स्थापना करनेको निषेध किया है। दोनोंकी विधि भी अलग-अलग कही है, जो प्रतिमामें स्थापना नहीं करते उनके लिए अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी स्थापना करके पूजन करना बतलाया है । और जो प्रतिमामें स्थापना करके पूजा करते हैं उनके लिए अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ध्यान और श्रुतदेवताकी आराधना इन छह विधियोंको बतलाया है। वसुनन्दिने अपने श्रावकाचारमें इस कालमें अतदाकार स्थापनाका निषेध किया है। आशाधरजी ने उसका निषेध नहीं किया। सम्भवतया पहले सामने प्रतिमाके न होनेपर तन्दुल आदिमें स्थापना करके भी पूजन की जाती थी। अस्तु, पूजन करनेसे पहले निर्दोष मूर्ति में जिनदेवके गुणोंकी श्रद्धापूर्वक स्थापनाकी जाती है। व्यवहारसे दर्शनविशद्धि आदि भावना प्रमुख पाँच कल्याणक और निश्चयसे अनन्त ज्ञानादि उनके असाधारण गुण हैं। उन गुणोंमें अनुरागवश ही जिनेन्द्र पूजा की जाती है । गुणोंमें अनुरागका ही नाम भक्ति है। भक्तिपूर्वक स्थापनाके बाद शुद्ध द्रव्यसे जिनेन्द्रकी पूजा की जाती है। द्रव्यकी शुद्धता दो बातोंपर निर्भर है। वह द्रव्य जबरदस्ती किसीसे छीना गया न हो, उसमें हार्दिकता हो, अपने या दूसरोंके खानेसे बचा हुआ न हो इत्यादि । दूसरे, निष्पाप साधनोंसे तैयार किया गया हो, बाजारू, गला-सड़ा या बासी आदि न हो, प्रासुक जलसे सावधानीपूर्वक बनाया गया हो, आरम्भबहुल न हो। इस तरह शरीरसे द्रव्यका अर्पण करने के साथ, वचनसे पूजन पढ़ते हुए और मनको संगीतपर्वक पढी जानेवाली पजनमें वर्णित भगवानके गणोंमें लगाते हए पजन करनेसे मनवचन-कायकी एकाग्रताके साथ सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि होती है । और एक दर्शन विशुद्धिका भी उत्कर्ष तीर्थकर नामक पुण्य विशेषके बन्धका कारण होता है यह सब जानते हैं। कहा है-विश्वेश्वर पदके कारण दर्शनविशुद्धि आदिकी आराधना करके अद्भुत शक्तिशाली आत्मा समग्र कर्मोंका निर्मूलन करनेके लिए तीर्थकर कमेका बन्ध करता है ॥३॥ अब, व्रतसे भषित जिनपूजकको इष्ट फल विशेषकी सिद्धि होती है, यह कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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