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________________ १२ धर्मामृत ( सागार ) श्रुतत्वादर्धः पुष्पाञ्जलिरित्यर्थः। अथवा स इत्यनेन पूर्वोक्त इष्टार्थ एव परामश्यते तेनायमर्थः कथ्यतेयद्यद्यष्टुरात्मनोऽभिमतं वस्तु गीतादिकं तेन जिने सम्यक्प्रयुक्तं तत्तद्विशिष्टगीतादिवस्तुनः अर्घाय मूल्याय ३ स्यात्तत् सम्पादयतीत्यर्थः ॥३०॥ अथ जिनेज्यायाः सम्यक् प्रयोगविध्युपदेशपुरस्सरं लोकोत्तरं फलविशेषमाविष्करोति चैत्यादौ न्यस्य शुद्ध निरुपरमनिरौपम्यतत्तद्गुणौघश्रद्धानात्सोऽयमर्हन्निति जिनमनघेस्तद्विधोपाधिसिद्धैः । नीराद्यैश्चारुकाव्यस्फुरदनणुगुणग्रामरज्यन्मनोभि भव्योऽचंन् दृग्विद्धि प्रबलयतु यया कल्पते तत्पदाय ॥३१।। __ चैत्यादौ-चैत्ये प्रतिमायामादिशब्देन तदलाभे जिनाकाररहिते अक्षतादौ। शुद्धे-रुद्राद्याकाररहिते इत्यर्थः। यदाह 'शुद्ध वस्तुनि संकल्पः कन्याजन इवोचितः । नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ॥ [सो. उपा. ४८१ ] और अगुरुसे मिश्रित धूपसे जिनचरणोंको पूजता है वह तीनों लोकों में शुभवर्तन (?) पाता है। जो पके हुए तथा रससे भरे हुए नाना फलोंसे जिन चरणको पूजता है वह इष्ट फलको पाता है।' इस प्रकार प्रत्येक पूजाका फल कहा है वैसा ही इस ग्रन्थमें भी कहा है। इस फलमें केवल लौकिक फलकी ही कामना है। आज जो पूजाफल द्रव्य चढ़ाते हुए बोला जाता है कि संसार तापकी शान्तिके लिए चन्दन चढ़ाता हूँ, अक्षय पदकी प्राप्तिके लिए अक्षत चढ़ाता हूँ, आदि वह फल आध्यात्मिक है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकालमें पूजामें लौकिक फलकी भावना थी। उत्तरकालमें उसे आध्यात्मिक रूप देकर पूजाका महत्त्व बढ़ाया है। तथा आठ द्रव्योंसे पृथक्-पृथक् पूजन करनेके बाद आठों द्रव्योंके मेलसे जो पूजन होती है उसे अर्घ कहते हैं। इस अर्घका कथन आशाधरजीने तो किया है किन्तु उनसे पहलेके उक्त ग्रन्थों में इसका कथन नहीं है । आशाधरजीने 'चार्घाय सः' की व्याख्या करते हुए लिखा है-'स अर्थात् अर्घ अर्थात् पुष्पांजलि पूजाविशेषके लिए होती है। आगे अथवा करके लिखा है 'स' पदसे पूर्वोक्त इष्टार्थका ग्रहण किया जाता है। उससे यह अर्थ किया जाता है कि पूजक जो-जो अभिमत वस्तु गीत आदि जिन भगवान्के प्रति सम्यक् रूपसे प्रयुक्त करता है वह-वह विशिष्ट गीत आदि वस्तुके अर्घ अर्थात् मूल्य के लिए होती है अर्थात् उसे स्वयं उन वस्तुओंकी प्राप्ति होती है। इससे प्रतीत होता है कि उस समय तक अर्घसे पूजनका प्रयोजन स्पष्ट नहीं था। तथा पूजा पद्धतिमें अर्घका प्रवेश अष्ट द्रव्य जितना प्राचीन नहीं है ॥३०॥। आगे जिन पूजाकी सम्यक् विधि बतलाते हुए उसका लोकोत्तर फल कहते हैं अविनाशी और असाधारण उन उन गुणों के समूह में अत्यन्त अनुरागसे, उत्सर्पिणीके तीसरे और अवसर्पिणीके चतुर्थकालमें होनेवाले चौंतीस अतिशय सहित और समवसरणमें आठ प्रातिहार्य सहित विराजमान तथा तत्त्वोपदेशसे भव्यजीवोंको पवित्र करनेवाले यह ही वे अर्हन्त हैं, इस प्रकार निर्दोष प्रतिमामें और उसके अभाव में अक्षत आदिमें जिनदेवकी स्थापना करके, पापके हेतु दोषोंसे रहित तथा निष्पाप साधनोंसे तैयार किये गये जल-चन्दन आदिसे सुन्दर गद्य-पद्यात्मक काव्योंमें वर्णित महान गुणों के समूह में मनको अनुरक्त करते हुए पूजन करनेवाला भव्य सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको बलवती बनाता है, जिस दर्शन विशुद्धिके द्वारा वह तीर्थकर पदको प्राप्त करने में समर्थ होता है ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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