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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय) सुकृतां-कृतपुण्यानाम् । अग्रेसरा:-सम्यक्त्वसहचारिपुण्योदययोगात् मुख्याः। केऽपि-प्रविरलाः सन्तीत्यर्थः । विधिवशात्-मिथ्यात्वसहचारिपुण्योदययोगात् । दीक्षोचिते-दीक्षा व्रताविष्करणं व्रतोन्मुखस्य वृत्तिरिति यावत् । सा चात्रोपासकदीक्षा जिनमुद्रा बा उपनीत्यादिसंस्कारो वा । :-वक्ष्यमाणतत्त्वार्थ- ३ प्रतिपत्त्यादिभिः । विद्येत्यादि । विद्यात्राजीवनाथं गीतादिशास्त्रम् । शिल्पं-कारुकर्म । ताभ्यां विमुक्ता ततोऽन्या, वृत्तिर्वार्ताकृष्यादिलक्षणो जीवनोपायो यत्र तस्मिन् । अन्वीरते-अनुगच्छन्ति ॥२०॥ अथ द्विजातिषु कुलक्रमायातमिथ्याधर्मपरिहारेण विधिवज्जिनोक्त-मार्गमाश्रित्य स्वाध्यायध्यानबलाद- ६ शुभकर्माणि निघ्नन्तं भव्यमभिष्टौति तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवतं ___तद्दीक्षानधृतापराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः। आङ्गं पौर्वमथार्थसंग्रहमधोत्याधीतशास्त्रान्तरः पन्ति प्रतिमासमाधिमुपयन् धन्यो निहन्त्यंहसी ॥२१॥ तीर्थ-धर्माचार्यो गृहस्थाचार्यों वा । सैषावतारक्रिया । उक्तं चार्षे 'गुरुजनयिता तत्त्वज्ञानं गर्भः सुसंस्कृतः।। तथा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ।। अवतारक्रिया सैषा गर्धाधानवदिष्यते । यतो जन्मपरिप्राप्तिः उभयत्र न विद्यते ॥ [ महापु. ३९।३४-३५ ] देशव्रतं-सोऽयं वृत्तलाभः । उक्तं च 'ततोऽस्य वत्तलाभः स्यात्तदैव गरुपादयोः । प्रणतस्य व्रतवातं विधानेनोपसेदुषः ।।' [ महापु. ३९।३६ ] कारुकर्म लिया गया है। इनसे आजीविका करनेवालोंको जिनदीक्षाका अधिकारी नहीं कहा। जो जन्मसे जैन होते हैं वे तो बिना प्रयत्नके ही सम्यक्त्व व्रत आदि धारण करके धर्मात्माओंमें अग्रणी बन जाते हैं और जो मिथ्यादृष्टि कुलमें जन्म लेते हैं वे आगे बतलाये क्रमके द्वारा व्रतादि धारण करके उन्हींके समान हो जाते हैं ॥२०॥ अब, जो ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य कुल-परम्परासे आये मिथ्या धर्मको छोड़कर और विधिपूर्वक जैनमार्गको स्वीकार करके स्वाध्याय और ध्यानके बलसे अशुभ कर्मोंका घात करते हैं उन भव्य जीवोंका अभिनन्दन करते हैं धर्माचार्य अथवा गृहस्थाचार्यके उपदेशसे जीवादिक तत्त्वार्थका निश्चय करके अष्ट मूलगुण आदि एकदेश ब्रतको स्वीकार करे तथा देशव्रतकी दीक्षा लेनेसे पहले गुरुमुखसे पंच नमस्कार नामक महामन्त्रको ग्रहण करे, अब तक जिन मिथ्यादेवोंको मानता था उनका त्याग कर दे, तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्व सम्बन्धी उद्धार ग्रन्थोंका अध्ययन करनेके बाद अन्य मतोंके शास्त्रोंको पढ़े । तथा प्रतिमास दो अष्टमी और दो चतुर्दशीकी रात्रिमें रात्रि प्रतिमा योगका अभ्यास करता हुआ वह पुण्यशाली व्यक्ति द्रव्यपाप और भावपापको नष्ट करता है ।२१॥ विशेषार्थ-अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगिता ये आठ क्रियाएँ जैन धर्म में दीक्षित होनेवाले अजैनके लिए हैं । इनकी गणना दीक्षान्वय क्रियाओंमें की जाती है । व्रतोंका धारण करना दीक्षा है। उन व्रतोंको ग्रहण करनेके सम्मुख पुरुषकी जो प्रवृत्ति है उसे दीक्षा कहते हैं और उस दीक्षासे सम्बन्ध रखनेवाली जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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