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धर्मामृत ( अनगार) वृद्धेषु-तपःश्रुतादिज्येष्ठेसु, ना महिम्ना-ना पुमान्, महिम्ना-लोकोत्तरानुभावेन, अथवा न अमहिम्ना किं तर्हि ? माहात्म्येनैव, अनुबध्यते-नित्यमधिष्टीयते । कुलशैलान्-एक-द्वि-चतुर्योजनशतोच्छि३ तान् हिमवदादीन् अनुत्क्रामन्–अनुल्लंघ्य वर्तमानः ॥१९॥ अथ व्युत्पन्नस्याप्रतिपाद्यत्वं दृष्टान्तेन समर्थयते
यो यद्विजानाति स तन्न शिष्यो
यो वा न यदृष्टि स तन्न लभ्यः । को दीपयेद्धामनिधि हि दोपैः
कः पूरयेद्वाम्बुनिधि पयोभिः ॥२०॥ वष्टि कामयति ॥२०॥ अथ विपर्यस्तस्य प्रतिपाद्यत्वे दोषं दर्शयति
यत्र मुष्णाति वा शुद्धिच्छायां पुष्णाति वा तमः ।
गुरूक्ति ज्योतिरुन्मोलत् कस्तत्रोन्मीलयेगिरम् ॥२१॥ शुद्धच्छायां-अभ्रान्ति वा चित्तप्रसत्तिम् । तमः-विपरीताभिनिवेशम् ॥२१॥ अथैवं प्रतिपादकप्रतिपाद्यौ प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्त्यङ्गतया सिद्धं धर्मफलं निर्दिशति
लोकोत्तर माहात्म्यसे परिपूरित होता है। ठीक ही है-हिमवान आदि कुलपर्वतोंका उल्लंघन न करनेवाला समद्र गंगा आदि नदियोंके द्वारा भरा जाता है॥१९॥
व्युत्पन्न पुरुष उपदेशका पात्र नहीं है, इसका समर्थन दृष्टान्त द्वारा करते हैं
जो पुरुष जिस वस्तुको अच्छी रीतिसे जानता है उसे उस वस्तुका शिक्षण देनेकी आवश्यकता नहीं है और जो पुरुष जिस वस्तूको नहीं चाहता उसे उस वस्तुको देना अनावश्यक है । कौन मनुष्य सूर्यको दीपकोंके द्वारा प्रकाशित करता है और कौन मनुष्य समुद्रको जलसे भरता है ? अर्थात् जैसे सूर्यको दीपक दिखाना और समुद्रको जलसे भरना व्यर्थ है क्योंकि सूर्य स्वयं प्रकाशमान है और समुद्र में अथाह जल है, वैसे ही ज्ञानी पुरुषको उपदेश देना व्यर्थ है क्योंकि वह तो स्वयं ज्ञानी है ॥२०॥
आगे विपर्यस्त श्रोताको उपदेश देने में दोष बतलाते हैं
गुरुकी उक्तिरूपी ज्योति प्रकाशित होते ही जिसमें वर्तमान शुद्धिकी छायाको हर लेती है और अन्धकारको बढ़ाती है उसे कौन उपदेश कर सकेगा ॥२॥
विशेषार्थ-गुरुके वचन दीपकके तुल्य हैं। दीपकके प्रकाशित होते ही यदि प्रकाशके स्थान पर अन्धकार ही बढ़ता हो तो ऐसे स्थानपर कौन दीपक जलाना पसन्द करेगा। उसी तरह गुरुके वचनोंको सुनकर जिसके चित्तमें वर्तमान थोड़ी-सी भी शान्ति नष्ट हो जाती हो
और उलटा विपरीत अभिनिवेश ही पुष्ट होता हो तो ऐसे व्यक्तिको उपदेश देनेसे क्या लाभ है ? उसे कोई भी बुद्धिमान् प्रवक्ता उपदेश देना पसन्द नहीं कर सकता ॥२१॥
धर्मके फलको सुनकर धर्म में प्रवृत्ति होती है इस तरह धर्मका फल भी धर्म में प्रवृत्तिका एक अंग है। इसलिए वक्ता और श्रोताका स्वरूप बतलाकर ग्रन्थकार धर्म के फलका कथन करते हैं
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