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प्रथम अध्याय
अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं,
कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो धर्म सदा शर्मदम् । संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशा
न्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमती व्युत्पत्त्यथित्वतः ॥१७॥ प्रलोभ्य-लाभपूजादिना प्ररोचनामुत्पाद्य, इच्छावशात्-व्युत्पत्तिवाञ्छानुरोधात् । विपर्ययाकुलमतिः-विपर्यस्तः ॥१७॥ ननु दृष्टफलाभिलाषदूषितमतिः कथं प्रतिपाद्य इत्याशङ्कां दृष्टान्तावष्टम्भेन निराचष्टे
यः शृणोति यथा धर्ममनुवृत्यस्तथैव सः ।
भजन पथ्यमपथ्येन बाल: किं नानुमोदते ॥१८॥ यथा-लाभपूजादिप्रलोभनप्रकारेण, अनुवृत्यः-अनुगम्यो न दूष्यः। पथ्यं-कटुतिक्तादिद्रव्यं व्याधिहरं, अपथ्येन-द्राक्षाशर्करादिना सह ॥१८॥ अथ विनयफलं दर्शयति
वृद्धेष्वनुद्धताचारो ना महिम्नानुबध्यते ।
कुलशैलाननुत्क्रामन सरिद्भिः पूर्यतेऽर्णवः ॥१९॥ चार प्रकारके श्रोता होते हैं-अव्युत्पन्न, सन्दिग्ध, व्युत्पन्न और विपर्यस्त । प्रवक्ता आचार्य धर्मके स्वरूपसे अनजान अव्युत्पन्न श्रोताको, उसके अभिप्रायके अनुसार धर्मसे मिलनेवाले लाभ, पूजा आदिका प्रलोभन देकर भी कृपाभावसे सदा सुखदायी धर्मका उपदेश देते हैं। तथा धर्मके विषयमें सन्दिग्ध श्रोता विनयपूर्वक समीपमें आकर पूछता है कि यह ऐसे ही है या अन्य प्रकारसे है तो उसको समझानेकी भावनासे धर्मका उपदेश देते हैं। किन्तु जो धर्मका ज्ञाता व्युत्पन्न श्रोता है अथवा विपरीत ज्ञानके कारण जिसकी मति विपरीत है, जो शास्त्रोक्त धर्मका अन्यथा समर्थन करनेके लिए कटिबद्ध है, ऐसे विपर्यस्त श्रोताको धर्मका उपदेश नहीं देते हैं क्योंकि व्युत्पन्न श्रोता तो धर्मको जानता है और विपर्यस्त श्रोता धर्मसे द्वेष रखता है ॥१७॥
यहाँ यह शंका होती है कि लौकिक फलकी इच्छासे जिसकी मति दूषित है वह कैसे उपदेशका पात्र है, इस आशंकाका निराकरण दृष्टान्त द्वारा करते हैं
जो जिस प्रकार धर्मको सुनता है उसे उसी प्रकार धर्म सुनाना चाहिए। क्या अपथ्यके द्वारा पथ्यका सेवन करनेवाले बालककी सब अनुमोदना नहीं करते हैं ॥१८॥
विशेषार्थ-जैसे बालक रोग दूर करने के लिए कटुक औषधिका सेवन यदि नहीं करता तो माता-पिता मिठाई वगैरहका लालच देकर उसे कटुक औषधि खिलाते हैं। यद्यपि मिठाई उसके लिए हितकारी नहीं है । नथा जब बालक मिठाईके लोभसे कटुक औषधि खाता है तो माता-पिता उसकी प्रशंसा करते हैं कि बड़ा अच्छा लड़का है। उसी प्रकार जो सांसारिक प्रलोभनके बिना धर्मकी ओर आकृष्ट नहीं होते उन्हें सांसारिक सुखका प्रलोभन देकर धर्म सुनाना बुरा नहीं है । यद्यपि सांसारिक सुख अहितकर है, किन्तु धर्म सुननेसे वह उसे अहितकर जानकर छोड़ सकेगा, इसी भावनासे ऐसा किया जाता है ॥१८॥
आगे विनयका फल बतलाते हैंतप, श्रुत आदिमें ज्येष्ठ गुरुजनोंके प्रति विनम्र व्यवहार करनेवाला मनुष्य नित्य ही
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