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धर्मामृत ( अनगार) एवंविधप्रज्ञस्यापि सदुपदेशं विना धर्मे प्रज्ञा न क्रमते इत्याचष्टे
महामोहतमश्छन्नं श्रेयोमार्ग न पश्यति ।
विपुलाऽपि दृशालोकादिव श्रुत्या विना मतिः ॥१५॥ दृक्-चक्षुः, आलोकात्-प्रदीपादिप्रकाशात्, श्रुत्या:-धर्मश्रवणात्, 'श्रुत्वा धर्म विजानाति' इत्यभिधानात् ॥१५॥ अथ शास्त्रसंस्कारान्मतेः परिच्छेदातिशयं शंसति
दृष्टमात्रपरिच्छेत्री मतिः शास्त्रेण संस्कृता।
व्यनक्त्यदृष्टमप्यर्थ दर्पणेनेव दृङ मुखम् ॥१६॥ मतिः-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमवग्रहादिज्ञानम् । शास्त्रेण-आप्तवचनादिजन्मना दृष्टादृष्टार्थज्ञानेन । तदुक्तम्
मतिर्जागति दृष्टेऽर्थे दृष्टेऽदृष्टे तथा गतिः ।
अतो न दुर्लभं तत्त्वं यदि निर्मत्सरं मनः ॥ [ सोम. उपा. २५८ श्लो. ] ॥१६॥ अथ श्रोतृणां चातुर्विध्याद् द्वयोरेव प्रतिपाद्यत्वं दृढयतिअर्थको प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करता है और जो ग्रहण करता है उसे इस तरह धारण करता है मानो वह उसका जीवन प्राण है उसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता, उसके समझने में यदि कुछ सन्देह, विपरीतता या अनजानपना लगता है तो विशिष्ट ज्ञाताओंके साथ बैठकर चर्चा वार्ता करके अपने सन्देह आदिको दूर करता है। फिर उस ज्ञात तत्त्वके प्रकाशमें तर्कवितर्क करके अन्य विषयोंको भी सुदृढ़ करता है और यदि उसे यह ज्ञात होता है कि अबतक जो अमुक विषयको हमने अमुक प्रकारसे समझा था वह प्रमाणबाधित है तो उसे छोडकर अपनी गलतीमें सुधार कर लेता है, तथा प्रवचन सुनने आदिका मुख्य प्रयोजन तो हेय और उपादेयका विचार करके अपने अभिप्रायको यथार्थ करना है, हेयका हेय रूपसे और उपादेयका उपादेयरूपसे श्रद्धान करना ही अभिप्रायकी यथार्थता है। यदि उसमें कमी रही तो श्रवण आदि निष्फल ही हैं । अतः जो भव्य जीव इस प्रकारके बौद्धिक गुणोंसे युक्त होता है वस्तुतः वही उपयुक्त श्रोता है ॥१४॥
आगे कहते हैं कि इस प्रकारके बुद्धिशाली भव्य जीवकी मति भी सदुपदेशके बिना धर्ममें नहीं लगती
जैसे दीपक आदिके प्रकाशके बिना खुली हुई बड़ी-बड़ी आँखें भी अन्धकारसे ढके हुए प्रशस्त मार्ग को नहीं देख सकतीं, वैसे ही धर्मश्रवणके बिना विशाल बुद्धि भी महामोहरूपी अन्धकारसे व्याप्त कल्याण-मार्गको नहीं देख सकती ॥१५॥
आगे शास्त्रके संस्कारसे जो बुद्धि में ज्ञानातिशय होता है उसकी प्रशंसा करते हैं
जैसे दर्पणके योगसे चक्षु स्वयं देखने में अशक्य भी मुखको देख लेती है वैसे ही इन्द्रिय और मनसे जानने योग्य वस्तुको ही जाननेवाली मति ( मतिज्ञान ) शास्त्रसे संस्कृत होकर अर्थात् शास्त्रश्रवणसे अतिशयको पाकर इन्द्रिय और मनके द्वारा जानने में अशक्य पदार्थको भी प्रकाशित करती है ।।१६।।।
आगे चार प्रकारके श्रोताओंमें से दो प्रकारके श्रोता ही उपदेशके पात्र होते हैं इस बातका समर्थन करते हैं
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