SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय भव्योऽपीदृश एव प्रतिपाद्यः स्यादित्याह श्रोतुं वाञ्छति यः सदा प्रवचनं प्रोक्तं शृणोत्यादरात् गृणाति प्रयतस्तदर्थं मचलं तं धारयत्यात्मवत् । तद्विद्यैः सह संविदत्यपि ततोऽन्यांश्चोहतेऽपोहते, २३ तत्तत्त्वाभिनिवेशमावहति च ज्ञाप्यः स धर्मं सुधीः ॥ १४॥ अत्र शुश्रूषा श्रवण- ग्रहण - धारण- विज्ञानोहापोहतत्त्वाभिनिवेशा अष्टौ बुद्धिगुणाः क्रमेणोक्ताः प्रतिपत्तव्याः । ६ प्रवचनं - प्रमाणाबाधितं वचनं जिनागममित्यर्थः । आत्मवत् - आत्मना तुल्यं शश्वदसत्त्ववियोगत्वात् । संवदति मोहसन्देहविपर्यासव्युदासेन व्यवस्यति । ततः तं विज्ञातमर्थमाश्रित्य वाप्त्यातवाधिनान्वितर्कत ( व्याप्त्या तथाविधान् वितर्कयति ) अपोहते - उक्तियुक्तिभ्यां प्रत्यवायसंभावनया विरुद्धानर्थान् व्यावर्तयति सुधीः । ९ एतेन घोधनाः इति विशेषणं व्याख्यातम् ॥१४॥ इस प्रकारकी स्थिति स्वाभाविक मानी गयी है । सारांश यह है - संसारी जीव - वह भव्य हो अथवा अभव्य हो - अनादिसे अशुद्ध है । यदि उसकी अशुद्धताको सादि माना जाये तो उससे पहले उसे शुद्ध मानना होगा। और ऐसी स्थिति में शुद्ध जीवके पुनः बन्धन असम्भव हो जायेगा क्योंकि शुद्धता बन्धनका कारण नहीं है । अशुद्धदशा में ही बन्ध सम्भव है अतः अशुद्धि अनादि है और शुद्धि सादि है । जैसे स्वर्णपाषाण में विद्यमान स्वर्णकी अशुद्धि अनादि है, शुद्ध है । तु अन्धपाषाण में वर्तमान स्वर्ण अनादिसे अशुद्ध होनेपर भी कभी शुद्ध नहीं होता । अतः उसकी अशुद्धि अनादिके साथ अनन्त भी है ॥१३॥ आगे कहते हैं कि इस प्रकारका ही भव्य जीव उपदेशका पात्र है Jain Education International सम्यक्त्व से युक्त समीचीन बुद्धिवाला जो भव्य जीव सदा प्रवचनको सुनने के लिए इच्छुक रहता है, और जो कुछ कहा जाता है उसे आदरपूर्वक सुनता है, सुनकर प्रयत्नपूर्वक उसके अर्थका निश्चय करता है, तथा प्रयत्नपूर्वक निश्चित किये उस अर्थको आत्माके समान यह मेरा है इस भाव से स्थिर रूपसे धारण करता है, जो उस विद्याके ज्ञाता होते हैं उनके साथ संवाद करके अपने संशय, विपर्यय और अनध्यवसायको दूर करता है, इतना ही नहीं, उस ज्ञात विषयसे सम्बद्ध अन्य अज्ञात विषयों को भी तर्क-वितर्कसे जाननेका प्रयत्न करता है, तथा युक्ति और आगमसे जो विषय प्रमाणबाधित प्रतीत होते हैं उनको हेय जानकर छोड़ देता है तथा प्रवचनके अर्थ में हेय, उपादेय और उपेक्षणीय रूपसे यथावत् अभिप्राय रखता है, ऐसा ही भव्य जीव उपदेशका पात्र होता है || १४ || विशेषार्थ - यद्यपि भव्य जीव ही उपदेशका पात्र होता है तथापि उसमें भी शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊह, अपोह और तत्त्वाभिनिवेश ये आठ गुण होना आवश्यक । इन गुणोंसे युक्त समीचीन बुद्धिशाली भव्य ही उपदेशका पात्र होता है । जैन उपदेशको प्रवचन कहा जाता है । 'प्र' का अर्थ है प्रकृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाणोंसे अविरुद्ध वचनको ही प्रवचन कहते हैं। जैसे 'सब अनेकान्तात्मक है' इत्यादि वाक्य जिनागमके अनुकूल होनेसे प्रवचन कहलाता है । ऐसे प्रवचनका प्रवक्ता भी कल्याण का इच्छुक होना चाहिए, अपने और श्रोताओंके कल्याणकी भावनासे ही जो धर्मोपदेश करता है उसीकी बात सुननेके योग्य होती है। ऐसे प्रवक्तासे प्रवचन सुनने के लिए जो सदा इच्छुक रहता है, और जब सुनने को मिलता है तो जो कुछ कहा जाता है उसे आदरपूर्वक सुनता है, शास्त्रसभा में बैठकर ऊँघता नहीं है और न गप्पबाजी करता है, सुन करके प्रवचन के For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy