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प्रथम अध्याय
२७ सुखं दुःखनिवृत्तिश्च पुरुषार्थावुभौ स्मृतौ ।
धर्मस्तत्कारणं सम्यक सर्वेषामविगानतः ॥२२॥ उभौ-द्वावेव सुखाद् दुःखनिवृत्तश्चातिरिक्तस्य सर्वे ( सर्वेषाम् )-पुरुषाणामभिलाषाविषयत्वात् । सर्वेषां लौकिकपरीक्षकाणां अविगानत:-अविप्रतिपत्तेः ॥२२॥ अथोक्तमेवार्थ प्रपञ्चयितुं मुख्यफलसंपादनपरस्य धर्मस्यानुषंङ्गिकफलसर्वस्वमभिनन्दति
येन मुक्तिश्रिये पुंसि वास्यमाने जगच्छ्यिः ।
स्वयं रज्यन्त्ययं धर्मः केन वर्योऽनुभावतः ॥२३॥ वास्यमाने-अनुरज्यमाने आश्रीयमाणे वा जगच्छ्रियः । अत्रागमो यथा
'संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं । जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणपहाणादो।'-प्रवचनसार ११६
_ पूर्वाचार्योंने सुख और दुःखसे निवृत्ति ये दो पुरुषार्थ माने हैं। उनका कारण सञ्चा धर्म है इसमें किसीको भी विवाद नहीं है ।।२२।।
विशेषार्थ-यद्यपि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ सभीने स्वीकार किये हैं । जो पुरुषोंकी अभिलाषाका विषय होता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं । सभी पुरुष ही नहीं, प्राणिमात्र चाहते हैं कि हमें सुखकी प्राप्ति हो और दुःखसे हमारा छुटकारा हो । उक्त चार पुरुषार्थोंका भी मूल प्रयोजन सुखकी प्राप्ति और दुःखसे निवृत्ति ही है। अतः इन दोनोंको पुरुषार्थ कहा है। यद्यपि दुःखसे निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति एक-जैसी ही लगती है क्योंकि दुःख निवृत्ति होनेसे सुखकी प्राप्ति होती है और सुखकी प्राप्ति होनेसे दुःखकी निवृत्ति होती है, तथापि वैशेषिक आदि दर्शन मुक्तावस्थामें दुःखनिवृत्ति तो मानते हैं किन्तु सुखानुभूति नहीं मानते । इसलिए ग्रन्थकारने दोनोंको गिनाया है । वैशेषिक दर्शनमें कहा है
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ आत्मगुणोंका अत्यन्त विनाश हो जाना मोक्ष है । उक्त दोनों पुरुषार्थों का कारण धर्म है यह सभीने स्वीकार किया है। जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति हो उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्षका यह लक्षण सभीने माना है।'
यतः धर्मका फल सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति है अतः उसमें प्रवृत्ति करना योग्य है।।२२।।
उक्त अर्थको ही स्पष्ट करनेके लिए मुख्यफलको देने में समर्थ धर्मके समस्त आनुषंगिक फलका अभिनन्दन करते हैं -
मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्राप्तिके लिए जिस धर्मको धारण करनेवाले मनुष्यपर संसारकी लक्ष्मियाँ स्वयं अनुरक्त होती हैं उस धर्मके माहात्म्यका वर्णन कौन कर सकने में समर्थ है ? ॥२३॥
विशेषाथ -धर्मपालनका मुख्य फल है संसारके दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति। आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके प्रारम्भमें धर्मका
१. वैशेषिक दर्शन में कहा है-“यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।" महापुराणमें आचार्य जिनसेनने
कहा है-“यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसिद्धिः सुनिश्चिता स धर्मः ॥५॥२०॥"
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