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धर्मामृत ( अनगार) स्पष्टम् ।।९६॥ अथ लुञ्चस्य लक्षणं फलं चोपदिशति
नैसङ्गयाऽयाचनाहिंसादुःखाभ्यासाय नाग्न्यवत् ।
हस्तेनोत्पाटनं श्मश्रुमूर्धजानां यतेर्मतम् ॥१७॥ उक्तं च
'काकिण्या अपि संग्रहो न विहितः क्षीरं यया कार्यते, चित्तक्षेपकृदनमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनै
वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥ [ पद्म. पञ्च. ११४२] ॥९७॥ अथास्नानसमर्थनार्थमाह
न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मशिनाम् ।
जलशुद्धयाथवा यावद्दोषं सापि मताहतैः ॥१८॥ उक्तं च श्रीसोमदेवपण्डितैः'ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् ।
स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ।।
स्थानसे दूसरे स्थानपर जाकर भी मुनि भोजन कर सकते हैं वह एकभक्त मुनिका मूलगुण है ।।९६॥
आगे केशलोंचका लक्षण और फल कहते हैं
नग्नताकी तरह निःसंगता, अयाचना, अहिंसा और दुःख सहनके अभ्यासके लिए मुनिका अपने सिर और दाढ़ीके बालोंको अपने हाथसे उखाड़ना केशलोंच माना है ।।९७||
विशेषार्थ-जिस तरह नग्नताके चार प्रयोजन हैं उसी तरह अपने हाथोंसे अपने सिर और दाढ़ीके बालोंको उखाड़नेके भी चार प्रयोजन हैं। पहला प्रयोजन है नैस्संग्य । साधु सर्वथा अपरिग्रही होता है उसके पास एक कौड़ी भी नहीं होती तब वह दूसरेसे क्षौर कर्म कैसे करावे । दूसरेसे करानेपर उसे देनेके लिए यदि किसीसे पैसा माँगता है तो दीनता व्यक्त होती है। यदि जटा बढ़ाता है तो उसमें जूं पैदा होनेसे अहिंसाका पालन सम्भव नहीं है । और सबसे आवश्यक बात यह है कि इससे साधुको कष्ट सहनका अभ्यास होता है और सुखशील व्यक्ति इस मार्गसे दूर रहते हैं। कहा भी है-'मुनिजन अपने पास
मात्रका भी संग्रह नहीं करते जिससे क्षौर कर्म कराया जा सके। उसके लिए वे अपने पास उस्तरा, कैची आदि अस्त्र भी नहीं रखते; क्योंकि उनसे चित्तमें क्षोभ पैदा होता हैं। वे जटाओंको भी धारण नहीं कर सकते क्योंकि जटाओंमें जूं पड़नेसे उनकी हिंसा अनिवार्य है। इसीलिए किसीसे न माँगनेका व्रत लेनेवाले साधु वैराग्य आदि बढ़ानेके लिए केशोंका लोंच करते हैं ॥९७॥
आगे अस्नान नामक मूलगुणका समर्थन करते हैं____ जो ब्रह्मचर्य व्रतके पालक हैं उन्हें जलके द्वारा शुद्धि करनेसे क्या प्रयोजन, क्योंकि अशुद्धिका कारण ही नहीं है । फिर जो ब्रह्मचारी होनेके साथ विशेष रूपसे आत्मदर्शी हैं उन्हें तो जलशुद्धिसे कोई प्रयोजन ही नहीं है । अथवा दोषके अनुसार जैन लोग जलशुद्धि भी करते हैं ॥२८॥
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