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________________ नवम अध्याय ७०१ संगे कापालिकात्रेयीचण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्य दण्डवत् स्नायाज्जपेन्मन्त्रमुपोषितः ।। एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके। दिने शुद्धयन्त्यसंदेहमृतो ब्रतगताः स्त्रियाः ।।' [ सो. उपा. १२६-१२८ श्लो. ] अपि च 'रागद्वेषमदोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वशवर्तिनः । न ते कालेन शुद्धयन्ति स्नातास्तीर्थशतैरपि ।।' ॥९८॥ अथोक्तक्रियाणां यथावदनुष्ठाने फलमाहनित्या नैमित्तिकोश्चेत्यवितथकृतिकर्माङ्गबाह्यश्रुतोक्ता, भक्त्या युङ्क्ते क्रिया यो यतिरथ परमः श्रावकोन्योऽथ शक्ल्या। स श्रेयःपवित्रमाग्रत्रिदशनरसुखः साधुयोगोज्झिताङ्गो भव्यः प्रक्षीणकर्मा व्रजति कतिपयैर्जन्मभिर्जन्मपारम् ॥१९॥ अन्यः- ( श्रावकः ) मध्यमो जघन्यो वा। श्रेयःपवित्रमां-पुण्यपाकेन निर्वृत्तम् । अग्रंप्रधानोऽर्थः । योगः-समाधिः । कतिपयैः-द्वित्रैः सप्ताष्टैर्वा । उक्तं च 'आराहिऊण केई चउव्विहाराहणाए जं सारं । उव्वरियसेसपुण्णा सव्वट्ठणिवासिणो होति ।। विशेषार्थ-स्नान शारीरिक शुद्धिके लिए किया जाता है। गृहस्थाश्रममें शारीरिक अशुद्धिके कारण रहते हैं किन्तु गृहत्यागी, वनवासी, ब्रह्मचारी साधुकी आत्मा इतनी निर्मल होती है कि उनकी शारीरिक अशुद्धिका प्रसंग ही नहीं आता। रहा शरीरकी मलिनता। उस ओर ध्यान देना और उसको दूर करना विलासिताके चिह्न हैं। आत्मदर्शी साधुका लक्ष उस ओर जाता ही नहीं। फिर भी यदि कोई शारीरिक अशुद्धि कभी होती है तो जलसे शुद्धि करते भी हैं। कहा है-'ब्रह्मचयसे युक्त और आत्मिक आचारमें लीन मुनियोंके लिए स्नानकी आवश्यकता नहीं है। हाँ, यदि कोई दोष लग जाता है तो उसका विधान है। यदि मुनि वाममार्गी कापालिकोंसे, रजस्वला स्त्रीसे, चाण्डाल और म्लेच्छ वगैरहसे छू जायें तो उन्हें स्नान करके, उपवासपूर्वक कायोत्सर्गके द्वारा मन्त्र का जप करना चाहिए। व्रती स्त्रियाँ ऋतुकालमें एकाशन अथवा तीन दिनका उपवास करके चौथे दिन स्नान करके निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं। किन्तु जो राग-द्वेषके मदसे उन्मत्त हैं और स्त्रियोंके वश में रहते हैं वे सैकड़ों तीर्थों में स्नान करनेपर भी कभी शुद्ध नहीं होते' ॥९८।।। आगे उक्त क्रियाओंके शास्त्रानुसार पालन करनेका फल कहते हैं जो मुनि अथवा उत्कृष्ट या मध्यम या जघन्य श्रावक सच्चे कृतिकर्म नामक अंगबाह्य श्रुतमें कही हुई इन नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंको अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक करता है वह भव्य जीव पुण्य कर्मके विपाकसे इन्द्र और चक्रवर्तीके सुखोंको भोगकर और सम्यक समाधिपूर्वक शरीर छोडकर दो-तीन या सात-आठ भवोंमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंको सर्वथा नष्ट करके संसारके पार अर्थात् मुक्तिको प्राप्त करता है ।।९९।। विशेषार्थ-मुमुक्षुको चाहे वह मुनि हो या उत्कृष्ट, मध्यम अथवा जघन्य श्रावक हो, उसे आत्मिक धर्म साधनाके साथ नित्य-नैमित्तिक क्रियाओंको भी करना चाहिए। ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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