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________________ नवम अध्याय ६९९ अथ स्थितिभोजनविधिमाह प्रक्षाल्य करौ मौनेनान्यत्रार्थाद ब्रजेद्यदैवाद्यात् । चतुरङ्गलान्तरसमक्रमः सहाञ्जलिपुटस्तदैव भवेत् ॥१४॥ अर्थात्-कोटिकाविसर्पणादिनिमित्तमाश्रित्य ॥९४।। अर्थकभक्तकस्थानयोर्भेदनिर्णयार्थमाह शुद्ध पादोत्सृष्टपातपरिवेषकभूत्रये । भोक्तुः परेऽप्येकभक्तं स्यात्त्वेकस्थानमेकतः ॥१५॥ - शुद्ध-जीववधादिविरहिते । परेऽपि-यत्रादौ भोजनक्रिया प्रारब्धा ततोऽन्यत्रापि ॥९५।। अथैकभक्तान्मूलगुणादेकस्थानस्योत्तरगुणत्वेनाप्यन्तरमाह अकृत्वा पादविक्षेपं भुजानस्योत्तरो गुणः। एकस्थानं मुनेरेकभक्तं त्वनियतास्पदम् ॥२६।। समाधिपूर्वक मरणमें वह आनन्दका अनुभव करता है। इस विधिके द्वारा मरण करके वह स्वर्ग जाता है और इसके विरुद्ध आचरणसे नरकमें जाना होता है' ॥१३॥ खड़े होकर भोजन करनेकी विशेष विधि कहते हैं हाथ धोकर यदि भोजनके स्थानपर चींटी आदि चलते-फिरते दिखाई दें, या इसी प्रकारका कोई अन्य निमित्त उपस्थित हो तो साधुको मौनपूर्वक दूसरे स्थानपर चले जाना चाहिए। तथा जिस समय भोजन करें उसी समय दोनों पैरोंके मध्य में चार अंगुलका अन्तर रखकर तथा हाथोंकी अंजलि बनाकर खड़े होवें। अर्थात् ये दोनों विशेषण केवल भोजनके समयके लिए हैं। जितने समय तक साधु भोजन करें उतने समय तक ही उन्हें इस विधिसे खड़े रहना चाहिए ॥१४॥ आगे एकभक्त और एकस्थानमें भेद बतलाते हैं जहाँ मुनि अपने दोनों पैर रखकर खड़ा होता है, जिस भूमिमें आहार देनेवाला खड़ा होता है तथा उन दोनोंके मध्यकी जिस भूमिमें जूठन गिरती है ये तीनों भूमि-प्रदेश शुद्ध होने चाहिए, वहाँ किन्हीं जीव-जन्तुओंका विचरण नहीं होना चाहिए जिससे उनका घात हो । ऐसे स्थानपर हाथ धोकर खड़े होनेपर यदि साधु देखता है कि ये भूमियाँ शुद्ध नहीं हैं तो वहाँसे दूसरे शुद्ध स्थानपर जाकर उक्त विधिसे भोजन करता है। ऐसे भोजनको एकभक्त कहते हैं। किन्तु यदि उसे दूसरे स्थानपर जाना नहीं पड़ता और प्रथम स्थान ही शुद्ध मिलता है तो उस भोजनको एकस्थान कहते हैं ॥१५॥ विशेषार्थ-एकस्थान और एकभक्तमें पादसंचार करने न करनेसे भेद है। एक स्थानमें तीन मुहूर्त कालके भीतर पादसंचार न करके भोजन करना एकस्थान है और तीन मुहूर्त कालमें एक क्षेत्रके अवधारणसे रहित होकर भोजन एकभक्त है। यदि दोनोंको एक माना जायेगा तो मूलगुण और उत्तरगुणमें भेद नहीं रहेगा । किन्तु ऐसा नहीं है, ऐसा होनेपर प्रायश्चित्त शास्त्रसे विरोध आता है। प्रायश्चित्त शास्त्रमें एकस्थानको उत्तरगुण और एकभक्तको मूलगुण कहा है ॥९५।। आगे ग्रन्थकार स्वयं इसी बातको कहते हैं एक स्थानसे दूसरे स्थानपर न जाकर एक ही स्थानपर भोजन न करनेवाले मुनिका एकस्थान उत्तरगुण है। और जहाँ भोजनका स्थान अनियत होता है, निमित्तवश एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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