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नवम अध्याय
तथैव श्रीसोमदेवपण्डितरप्यवादि
'विकारे विदुषां दोषो नाविकारानुवर्तने । तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ।। नैष्किञ्चन्यमहिंसा च कुतः संयमिनां भवेत् ।
ते सङ्गाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥' [ सोम. उपा., श्लो. १३१-१३२ ] औद्देशिकपिण्डोज्झा-श्रमणमुद्दिश्य कृतस्य भक्तादेवर्जनम् । शय्याधरपिण्डोज्झा-वसतेः ६ कारकी. संस्कारकोऽत्रास्वेति सम्पादकश्चेति त्रयः शय्याधरशब्देनोच्यन्ते । तेषामयं तत आगतो वा शय्याधर
'कल्पस्थिति देस हैं। इनमेंसे चार कल्प तो स्थित हैं और छह अस्थित हैं । १. शय्यातर पिण्डका त्याग, २ व्रत, ३ ज्येष्ठ और कृतिकर्म ये चार अवस्थित हैं। सभी तीर्थंकरोंके समयके सभी साधु इन चारोंका पालन अवश्य करते हैं। शेष छह कल्प अस्थित हैं। अर्थात् प्रथम
और अन्तिम तीर्थंकरोंको छोडकर शेष बाईस तीर्थकरोंके साध तथा विदेहके साधु इन्हें पालते भी हैं और नहीं भी पालते। इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें इन दस कल्पोंका सम्बन्ध आचार्य के आचारवत्त्वके साथ नहीं है ये तो सभी साधुओंके लिये करणीय हैं।। ___अब प्रत्येक कल्पका स्वरूप कहते हैं-अचेलकके भावको आचेलक्य कहते हैं। चेल कहते हैं वस्त्रको, वस्त्रादि परिग्रहका अभाव या नग्नताका नाम आचेलक्य है । प्रत्येक साधुको नग्न ही रहना चाहिए। भगवती आराधना, गा. ४२१ की संस्कृत टीकामें अपराजित सूरिने इसका समर्थन किया है और श्वेताम्बरीय शास्त्रोंके आधारसे ही उनकी मान्यताका विरोध दिखलाया है। क्योंकि श्वेताम्बर परम्पराके भाष्यकारों और टीकाकारोंने अचेलका अर्थ अल्प चेल या अल्पमूल्यका चेल किया है। और इस तरहसे नग्नताको समाप्त ही कर दिया है। किन्तु अचेलतामें अनेक गुण हैं। वस्त्रमें पसीनेसे जन्तु पैदा हो जाते हैं और उसके धोनेसे उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः वस्त्रके त्यागसे संयममें शद्धि होती है। शरीरमें उत्पन्न होनेवाले विकारको रोकनेके प्रयत्नसे इन्द्रियजयका अभ्यास होता है। चोरों आदिका भय न होनेसे कषाय घटती है। वस्त्र रखनेसे उसके फट जानेपर नया वस्त्र माँगना होता है या उसे सीनेके लिए सुई माँगनी होती है और इससे स्वाध्याय और ध्यानमें बाधा आती है। वस्त्र आदि परिग्रहका मूल अन्तरंग परिग्रह है। वस्त्र त्याग देनेसे अभ्यन्तर परिग्रहका भी त्याग होता है। तथा अच्छे और बुरे वस्त्रोंके त्यागसे राग-द्वेष भी नहा होते । वस्त्रकै अभावमें हवा, धूप, शीत आदिके सहन करनेसे शरीरमें आदरभाव नहीं रहता । देशान्तरमें जानेके लिए किसी सहायककी अपेक्षा न रहनेसे स्वावलम्बन आता है। लँगोटी आदि न रखनेसे चित्तकी विशुद्धि प्रकट होती है। चोरोंके मार-पीट करनेका भय न रहनेसे निर्भयता आती है। पासमें हरण करने लायक कुछ भी न रहनेसे विश्वसनीयता आती है। कहा भी है-'वस्त्रके मलिन होनेपर उसके धोनेके लिए पानी आदिका आरम्भ
१. र. पिण्ड उपलक्षणाद्भक्तो-भ. कु. च.। २. 'सिज्जायरपिंडे या चाउज्जामे य पुरिसजेठे य ।
कितिकम्मस्स य करणे चत्तारि अवठिया कप्पा ।। आचेलक्कुदेसिय सपडिक्कमणे य रायपिंडे य । मासं पज्जोसवणा छप्पेतऽणवतिा कप्पा ||-बृहत्कल्पसूत्र, गा. ६३६१-६२ ।
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