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________________ ६८४ धर्मामृत ( अनगार) अथ स्थितिकल्पदशकं गीतिद्वयेन निर्दिशति आचेलक्यौद्देशिकशय्याधरराजकीयपिण्डौज्झाः। क्रतिकर्मवतारोपणयोग्यत्वं ज्येष्ठता प्रतिक्रमणम ॥ . मासैकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः । तन्निष्ठं पृथुकोतिः क्षपकं निर्यापको विशोधयति ।।८०-८१॥ आचेलक्यं-वस्त्रादिपरिग्रहाभावो नग्नत्वमात्रं वा । तच्च संयमशुद्धीन्द्रियजय-कषायाभावध्यानस्वाध्यायनिर्विघ्नता-निर्ग्रन्थत्व-वीतरागद्वेषता - शरीरानादर-स्ववशत्व-चेतोविशुद्धि-प्राकटय-निर्भयत्व-सर्वत्रविश्रब्धत्व-प्रक्षालनोद्वेष्टनादिपरिकर्मवर्जनविभूषामूर्छा-लाघवतीर्थकराचरितत्वानिगूढ-बलवीर्यताद्यपरिमित-गुणग्रामोपलम्भात् स्थितिकल्पत्वेनोपदिष्टम् । एतच्च श्रीविजयाचार्य-विरचित-मलाराधनाटीकायां सूत्रे विस्तरतः समथितं द्रष्टव्यमिह न प्रपञ्च्यते ग्रन्थगौरवभयात् । अत एव श्रीपद्मनन्दिपादैरपि सचेलतादूषणं दिङमात्र मिदमधिजगे१२ 'म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् । कोपीनेऽपि हृते परैश्च झगिति क्रोधः समुत्पद्यते तन्नित्यं शुचिरागहृच्छमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥' [ पद्म. पञ्च., ११४१ ] दूसरेसे नहीं कहते वे अपरिस्रावी कहलाते हैं। यदि आचार्य स्वयं अपने साधुओंके दोषोंको प्रकट कर उन्हें दूषित करेंगे तो लोक उनकी निन्दा ही करेंगे (गा. ४९५ पर्यंत)। यदि क्षपककी परिचर्या में त्रुटि हो तो उसको कष्ट होता है, वह क्रुद्ध भी होता है किन्तु निर्वापक गुणके धारी हितोपदेशसे उसे प्रसन्न ही रखनेकी चेष्टा करते हैं (गा. ४९६-५२०) इस प्रकार ये आठ गुण आचार्यके होते हैं ॥७८-७९।। आगे दो पद्योंसे दस स्थितिकल्पोंको कहते हैं १ आचेलक्य अर्थात् वस्त्र आदि परिग्रहका अभाव या नग्नता। २ श्रमणोंके उद्देशसे बनाये गये भोजन आदिका त्याग । ३ वसतिको बनानेवाले या उसकी मरम्मत आदि कराने वाले या वहाँके व्यवस्थापकको शय्याधर कहते हैं। उसके भोजन आदिको प्रहण न करना। ४ राजाके घरका भोजन ग्रहण न करना। ५ छह आवश्यकोंका पालन । ६ व्रतोंके आरोपणकी योग्यता । ७ ज्येष्ठता। ८ प्रतिक्रमण । ९ एक मास तक ही एक नगरमें वास । १० वर्षाके चार महीनोंमें एक ही स्थान पर वास । ये दस स्थितिकल्प हैं ।।८०-८१॥ विशेषार्थ-आचार्य के छत्तीस गुणोंमें दस स्थितिकल्प बतलाये हैं उन्हींका यह कथन है। भगवती आराधनामें आचार्यके आचारवत्त्व गुणका प्रकारान्तरसे कथन करते हुए इन दस कल्पोंका कथन किया है। कहा है जो दस स्थितिकल्पोंमें स्थित है वह आचार्य आचारवत्त्व गुणका धारक है और आठ प्रवचन माताओंमें संलग्न है। श्वेताम्बर परम्पराके आगमिक साहित्यमें इन स्थितिकल्पोंका बहुत विस्तारसे वर्णन मिलता है। उनमें इनका आचार्यके आचारवत्त्वसे सम्बन्ध नहीं है । ये तो सर्वसाधारण हैं, शास्त्रोक्त साधु समाचारको कल्प कहते हैं और उसमें स्थितिको कल्पस्थिति कहते हैं। ये आच १. 'दसाविहठिदि कप्पे वा हवेज्ज जो सुट्टिदो सयायरिओ। आयारवं खु एसो पवयणमादासु आउत्तो ॥'-भ. आ., ४२० गा.। Jain Education International - For Private &Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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