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________________ ६८६ धर्मामृत (अनगार) पिण्डो भक्तोपकरणाद्युपयोगिद्रव्यं तद्वर्जनम् । सति शय्याधरपिण्डग्रहणे प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं धर्मफललोभात् । यो वा आहारं दातुमक्षमो दरिद्रो लुब्धो वा नासो वर्सात प्रयच्छेत् । सति वसतिदाने च लोका मां ३ निन्दन्ति स्थिता वसतावस्य यतयः न वाऽनेन मन्दभाग्येन तेषामाहारो दत्त इति । आहारं वसति च प्रयच्छति । तस्मिन् बहूपकारितया यतेः स्नेहश्च स्यादिति दोषाः स्युः । अन्ये पुनः शय्यागृह पिण्डत्याग इति पठित्वा एवं व्याचक्षते ‘मार्गं व्रजता यत्र गृहे रात्रौ सुप्यते तत्रैवान्यदिने भोजन परिहारो वसतिसंवन्धिद्रव्यनिमित्तपिण्डस्य ६ वा त्याग इति । राजकीयपिण्डोज्झा - अत्र राजशब्देनेश्वाकुप्रभृतिकुले जातो राज ते प्रकृति रञ्जयतीति वा राजा राज्ञा सदृशो महद्धिको वा भण्यते । तत्स्वामिकभक्तादिवर्जनम् । तद्गृहप्रवेशे हि यतेः स्वच्छन्दचित्रकुक्कुराद्यपघातः । तद्भूषावलोकनाद् वरतुरगादीनां त्रासः । तं प्रति गर्वितदासाद्युपहोसः । अवरुद्धाभिः करना पड़ता है । ऐसी स्थितिमें संयम कैसे रह सकता है । वस्त्र के नष्ट होनेपर महान् पुरुषोंका भी चित्त व्याकुल हो जाता है और उन्हें दूसरोंसे वस्त्रकी याचना करनी पड़ती है । दूसरोंके द्वारा लँगोटीके भी चुरा लिये जानेपर तत्काल क्रोध उत्पन्न होता है । इसीसे संयमी जनोंका वस्त्र दिगम्बरत्व है जो नित्य पवित्र है और रागभावको दूर करता है ।' आचार्य सोमदेवने भी कहा है- 'विद्वान् विकारसे द्वेष करते हैं, अविकारतासे नहीं । ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नग्नतासे कैसा द्वेष ? यदि मुनिजन पहननेके लिए वल्कल, चर्म या वस्त्रकी इच्छा रखते हैं तो उनमें नैष्किचन्य अर्थात् मेरा कुछ भी नहीं, ऐसा भाव तथा अहिंसा कैसे सम्भव है ?" इस तरह आचेलक्यका वास्तविक अर्थ नग्नता ही है और वह प्रथम स्थितिकल्प है । दूसरा है श्रमणोंके उद्देश्य से बनाये गये भोजन आदिको ग्रहण न करना । बृहत्कल्पसूत्र (गा. ६३७६) में कहा है कि ओघरूपसे या विभाग रूपसे श्रमणों और श्रमणियोंके कुल, गण और संघ के संकल्पसे जो भोजन आदि बनाया गया है वह ग्राह्य नहीं है । यह नियम केवल प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके साधुओंके लिए है । शेष बाईस तीर्थंकरोंके साधु और महाविदेहके साधु यदि किसी एक व्यक्ति विशेषके उद्देशसे भोजन बनाया गया है तो वह भोजन उस व्यक्तिविशेषके लिए अग्राह्य है अन्य साधु उसे स्वीकार करते हैं। तीसरा स्थितिकल्प है शय्याधर पिण्ड त्याग । शय्याधर शब्दसे यहाँ तीन लिये गये हैं- जिसने वसतिका बनवायी है, जो वसतिकाकी सफाई आदि करता है तथा जो वहाँका व्यवस्थापक है । उनके भोजन आदिको ग्रहण न करना तीसरा स्थितिकल्प है । उनका भोजन आदि ग्रहण करने पर वे धर्म फलके लोभसे छिपाकर भी आहार आदिको व्यवस्था कर सकेंगे । तथा जो आहार देनेमें असमर्थ है, दरिद्र या लोभी है वह इसलिए रहनेको स्थान नहीं देगा कि स्थान देने से, भोजनादि भी देना होगा । वह सोचेगा कि अपने स्थान पर ठहराकर भी यदि मैं आहारदि नहीं दूँगा तो लोग मेरी निन्दा करेंगे कि इसके घर में मुनि ठहरें और इस अभागेने उन्हें आहार नहीं दिया । दूसरे, मुनिका उसपर विशेष स्नेह हो सकता है कि यह हमें वसतिके साथ भोजन भी देता है । किन्तु उसका भोजन ग्रहण न करनेपर उक्त दोष नहीं होते । अन्य कुछ ग्रन्थकार 'शय्यागृह पिण्डत्याग' ऐसा पाठ रखकर उसका यह व्याख्यान करते हैं कि मार्गमें जाते हुए जिस घर में रातको सोये उसी घर में दूसरे दिन भोजन नहीं करना अथवा वसतिका निमित्तसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे बना भोजन ग्रहण नहीं करना । राजपिण्डका ग्रहण न करना चतुर्थ स्थितिकल्प है । यहाँ राजा शब्दसे जिसका जन्म इक्ष्वाकु आदि कुलमें हुआ है, अथवा जो प्रजाको प्रिय शासन देता है या राजा के समान ऐश्वर्यशाली है उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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