SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय प्रोद्यनिर्वेदपुष्यद्वतचरणरसः सम्यगाम्नायधर्ता, धीरो लोकस्थितिज्ञः स्वपरमतविदां वाग्मिनां चोपजीव्यः । सन्मतिस्तीर्थतत्त्वप्रणयननिपुणः प्राणदाज्ञोऽभिगम्यो, निर्ग्रन्थाचार्यवर्यः परहितनिरतः सत्पथं शास्तु भव्यान ॥९॥ निर्वेदः-भवाङ्गभोगवैराग्यम्, आम्नायः कुलमागमश्च । उक्तं च 'रूपाम्नायगुणराढयो यतीनां मान्य एव च। तपोज्येष्ठो गुरुश्रेष्ठो विज्ञेयो गणनायकः ॥' अतिशय रूपसे बढ़ते हुए वैराग्यसे जिनका व्रताचरणमें रस पुष्ट होता जाता है, जो सम्यक् आम्नायके-गुरुपरम्परा और कुलपरम्पराके धारक हैं, धीर हैं-परीषह उपसर्ग आदिसे विचलित त नहीं होते, लोककी स्थितिको जानते हैं, स्वमत और परमतके ज्ञाताओं में तथा वक्ताओंमें अग्रणी हैं, प्रशस्त मूर्ति हैं, तीर्थ और तत्त्व दोनोंके कथनमें निपुण हैं, जिनका शासन प्राणवान है उसका कोई उलंघन नहीं करता, जिनके पास प्रत्येक व्यक्ति जा सकता है, तथा जो सदा परोपकारमें लीन रहते हैं ऐसे श्रेष्ठ निर्ग्रन्थाचार्य भव्य जीवोंको सन्मार्गका उपदेश देवे ॥९॥ विशेषार्थ-गुप्ति और समितिके साथ व्रतोंके पालन करनेको व्रताचरण कहते हैं। और संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्तिको वैराग्य या निर्वेद कहते हैं। शान्तरसकी प्राप्तिके अभिमुख होनेसे उत्पन्न हुए आत्मा और शरीरके भेदज्ञानकी भावनाके अवलम्बनसे जिनका व्रताचरणका रस प्रति समय वृद्धिकी ओर होता है, तथा जो सम्यक् आम्नायके धारी होते हैं-आम्नाय आगमको भी कहते हैं और आम्नाय वंशपरम्परा और गुरुपरम्पराको भी कहते हैं। अतः जो चारों अनुयोगोंसे विशिष्ट सम्पूर्ण आगमके ज्ञाता और प्रशस्त गुरुपरम्परा तथा कुलपरम्पराके धारक हैं, दूसरे शब्दोंमें-परम्परागत उपदेश और सन्तानक्रमसे आये हुए तत्त्वज्ञान और सदाचरणमें तत्पर हैं, परीषह और उपसर्गसे भी अधीर नहीं होते हैं, चराचर जगत्के व्यवहारके ज्ञाता होते हैं, अपने स्याद्वाद सिद्धान्तको तथा अन्य दर्शनोंके एकान्तवादको जाननेवालोंके पिछलग्गू न होकर अग्रणी होते हैं, इसी तरह वक्तृत्व शक्तिसे विशिष्ट पुरुषोंमें भी अग्रणी होते हैं, जिनकी मूर्ति सामुद्रिक शास्त्रमें कहे गये लक्षणोंसे शोभित तथा घने रोम, स्थूलता और दीर्घता इन तीन दोषोंसे रहित होने के कारण प्रशस्त होती है। आगममें कहा है-'रूप, आम्नाय और गुणोंसे सम्पन्न, यतियोंको मान्य, तपसे ज्येष्ठ और गुरुओंमें जो श्रेष्ठ होता है उसे गणनायक-संघका अधिपति गणधर कहते हैं।' तथा जो तीर्थ और तत्त्वके प्रणयनमें निपुण होते हैं जिसके द्वारा संसार-समुद्रको तिरा जाता है उसे तीर्थ कहते हैं। 'सब अनेकान्तात्मक है' इस प्रकारका मत ही तीर्थ है और समस्त मतवादोंको तिरस्कृत करते हुए व्यवहार और निश्चयनयके प्रयोगसे प्रकाशित विचित्र आकारवाली चक्रात्मक वस्तुका कथन करना प्रणयन है। तथा अध्यात्म रहस्यको तत्त्व कहते हैं । भूतार्थनय और अभूतार्थनयके द्वारा व्यवस्थापित दया, इन्द्रिय दमन, त्याग, समाधिमें प्रवर्तनसे होनेवाले परमानन्द पदका उपदेश उसका प्रणयन है। अर्थात् तीर्थ और तत्त्व दोनोंके प्रणयनमें-मुख्य और उपचारके कथनमें निपुण होना चाहिए। यदि वह किसी १. म. कु. च. टीकायां 'उक्तं चार्षे' इति लिखितं किन्तु महापुराणे नास्ति श्लोकोऽयम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy