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धर्मामृत ( अनगार ) धीरः-परीषहोसपर्गरविकार्यः । लोकस्थितिज्ञः-लोकस्य चराचरस्य जगतः स्थितिमित्थंभावनियम जानन् वर्णाश्रमव्यवहारचतुरो वा, तीर्थतत्त्वे-जिनागमतदभिधेयौ व्यवहारनिश्चयनयो वा । प्राणदाज्ञः३ जीवन्ती जीवितप्रदा वा आज्ञा यस्य । अभिगम्यः-सेव्यः । निर्ग्रन्थाः-ग्रनन्ति दी/कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्था मिथ्यात्वादयस्तेभ्यो निष्क्रान्ता यतयस्तेषामाचार्याः । उक्तं च
पञ्चधा चरन्त्याचारं शिष्यानाचारयन्ति च ।
सर्वशास्त्रविदो धीरास्तेऽत्राचार्याः प्रकीर्तिताः ।।९।। [ अथाध्यात्मरहस्यगुरोः सेवायां मुमुक्षून्नियुङ क्ते
एकमें ही निपुण हुए तो दूसरेका लोप हो जायेगा अर्थात् केवल निश्चयनयमें निपुण होनेसे व्यवहारका लोप होगा और केवल व्यवहारनयमें निपुण होनेसे निश्चयका लोप होगा। कहा भी है-'यदि जिनमतका प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयको मत छोड़ो। व्यवहारके बिना तीर्थका उच्छेद होता है और निश्चयके बिना तत्त्वका उच्छेद होता है। जिनकी प्रवृत्ति स्वसमयरूप परमार्थसे रहित है और जो कर्मकाण्डमें लगे रहते हैं वे निश्चय शुद्ध रूप चारित्रके रहस्यको नहीं जानते । तथा जो निश्चयका आलम्बन लेते हैं किन्तु निश्चयसे निश्चयको नहीं जानते, वे बाह्य क्रियाकाण्डमें आलसी चारित्राचारको नष्ट कर देते हैं । अतः आचार्यको निश्चय और व्यवहारके निरूपणमें दक्ष होना आवश्यक है। तथा प्रियवचन और हितकारी वचन बोलना चाहिए। यदि कोई श्रोता प्रश्न करे तो उत्तेजित होकर सौमनस्य नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा व्यक्ति निर्ग्रन्थाचार्योंमें भी श्रेष्ठ होना चाहिए। जो संसारको दीर्घ करते हैं ऐसे मिथ्यात्व आदिको ग्रन्थ कहते हैं। उनको जिन्होंने छोड़ दिया है उन साधुओंको निग्रन्थ कहते है। तथा जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारोंको स्वयं पालते हैं और दूसरोंसे-शिष्योंसे उनका पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। कहा भी है-'जो पाँच प्रकारके आचारको स्वयं पालते हैं और शिष्योंसे पालन कराते हैं-समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उन धीर महापुरुषोंको आचार्य कहते हैं।' निर्ग्रन्थोंके आचार्य निर्ग्रन्थाचार्य होते हैं और उनमें भी जो श्रेष्ठ होते हैं उन्हें निर्ग्रन्थाचार्यवर्य कहते हैं । उक्त विशेषताओंसे युक्त ऐसे आचार्य ही, जो कि सदा परोपकारमें लगे रहते है, सन्मार्गका व्यवहार निश्चय मोक्षमार्गका उपदेश देनेमें समर्थ होते हैं। अतः ग्रन्थकार आशा करते हैं कि उपदेशकाचार्य उक्त गुणोंसे विशिष्ट होवें। उक्त गुणोंसे विशिष्ट आचार्यको ही आदरपूर्वक उपदेशमें लगना चाहिए।
आगे अध्यात्मरहस्यके ज्ञाता गुरुकी सेवामें मुमुक्षुओंको लगनेकी प्रेरणा करते हैं
१. जइ जिणमयं पवज्जइ ता मा ववहारणिच्छए मुअह ।
एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ।। 'चरणकरणप्पहाणा ससमय परमत्थ मुक्कवावारा । चरणकरणं ससारं णिच्छयसुद्धं ण जाणन्ति ॥'-सन्मति., ३।६७ । णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अजाणता । णासंति चरणकरणं बाहिरकरणालसा केई ।
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