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________________ ६७८ धर्मामृत ( अनगार) सैद्धान्तस्य मुनेः सिद्धश्रुतर्षिशान्तिभक्तिभिः । उत्तरव्रतिनः सिद्धश्रुतवृत्तर्षिशान्तिभिः । सूरेनिषेधिकाकाये सिद्धर्षिसूरिशान्तिभिः । शरीरक्लेशिनः सिद्धवृत्तर्षिगणिशान्तिभिः ॥ सैद्धान्ताचार्यस्य सिद्धश्रु तर्षिसूरिशान्तयः ।। अन्ययोगे सिद्धश्रु तवृत्तर्षिगणिशान्तयः ॥ ॥७३॥ अथ स्थिरचलजिनबिम्बप्रतिष्ठायाः क्रियाविधि तच्चतुर्थस्नपन क्रियाविशेषं चोपदिशति स्यात्सिद्धशान्तिभक्तिः स्थिरचलजिनबिम्बयोः प्रतिष्ठायाम् । अभिषेकवन्दना चलतुर्यस्नाने तु पाक्षिको त्वपरे ॥७४॥ अभिषेकवन्दना-सिद्धचैत्यपञ्चगुरुशान्तिभक्तिलक्षणा । पाक्षिकी-सिद्धचारित्रभक्ती बहदालोचना शान्तिभक्तिश्चेत्येषा। स्वाध्यायाग्राहिणां पुनर्गृहिणां सवालोचनारहिता । अपरे-अन्यस्मिन स्थिरजिनप्रतिमा१२ चतुर्थस्नान इत्यर्थः । उक्तं च 'चलाचलप्रतिष्ठायां सिद्धशान्तिस्तुतिर्भवेत् । वन्दना चाभिषेकस्य तुर्यस्नाने मता पुनः ॥ सिद्धवृत्तनुतिं कुर्याद् बृहदालोचनां तथा । शान्तिभक्ति जिनेन्द्रस्य प्रतिष्ठायां स्थिरस्य तु ॥ ॥७४॥ साधुका मरण हो तो उसके शरीर और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, यागिभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर की जाती है। यदि उत्तर व्रतोंको धारण करनेवाले साधुका मरण हो तो उसके शरीर और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर की जाती है। यदि मरनेवाला साधु सिद्धान्तवेत्ता होनेके साथ उत्तर गुणोंका भी पालक हो तो उसके शरीर और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर की जाती है। यदि आचार्यका मरण हो जाये तो उनके शरीरकी और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर करनी चाहिए। यदि सिद्धान्तवेत्ता आचार्यका मरण हो तो उनके शरीर और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर करनी चाहिए। किन्तु ऐसे ऋषिका मरण हो जो आचार्य होनेके साथ कायक्लेश तपके धारी हों तो उनके शरीर और निषद्या भूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति पूर्वक करनी चाहिए। यदि मरणको प्राप्त ऋषि आचार्य होनेके साथ सिद्धान्तवेत्ता और कायक्लेशतपके धारक हों तो उनके शरीर और निषद्याभूमिकी वन्दना क्रमसे सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति और शान्तिभक्ति पूर्वक करनी चाहिए ||७२-७३।।। स्थिर जिनविम्ब और चल जिनविम्बकी प्रतिष्ठाके समयकी विधि तथा चल जिनबिम्बके चतुर्थ दिन किये जानेवाले अभिषेकके समयकी क्रियाविधि कहते हैं स्थिर प्रतिमाकी प्रतिष्ठा या चल जिनबिम्बकी प्रतिष्ठामें सिद्धभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़कर वन्दना करनी चाहिए। किन्तु चल जिनबिम्बकी प्रतिष्ठाके चतुर्थ दिन अभिषेकके समय अभिषेक वन्दना की जाती है अर्थात् सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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