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________________ नवम अध्याय ६७९ अथाचार्यपदप्रतिष्ठापनक्रियाविधिमाह सिद्धाचार्यस्तुती कृत्वा सुलग्ने गुर्वनुज्ञया। लात्वाचार्यपदं शान्ति स्तुयात्साधुः स्फुरद्गुणः ॥७॥ आचार्यपदम् । अद्य प्रभृति भवता रहस्यशास्त्राध्ययनदीक्षादानादिकमाचार्यकार्यमाचर्यमिति गणसमक्षं भाषमाणेन गुरुणा समय॑माणपिच्छग्रहणलक्षणम् । उक्तं च चारित्रसारे—'गुरूणामनुज्ञायां विज्ञानवैराग्यसंपन्नो विनीतो धर्मशील: स्थिरश्च भूत्वाऽऽचार्यपदव्या योग्यः साधर्गरुसमक्षे सिद्धाचार्यभक्ति कृत्वाऽऽचार्य-६ पदवी गृहीत्वा शान्तिभक्ति कुर्यादिति ॥७५॥ ..अथाचार्यस्य षट्त्रिंशतं गुणान् दिशति अष्टावाचारवत्त्वाद्यास्तपांसि द्वादशस्थितेः । कल्पा दशाऽऽवश्यकानि षट् षट् त्रिंशद्गुणा गणेः॥७६॥ शान्तिभक्ति पूर्वक वन्दना की जाती है । किन्तु स्थिर जिन प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके चतुर्थ दिन होनेवाले अभिषेकके समय पाक्षिकी क्रिया की जाती है अर्थात् सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, बृहत् आलोचना और शान्तिभक्ति की जाती है। और स्वाध्यायको ग्रहण न करने श्रावक बृहत् आलोचनाको छोड़कर शेषभक्ति पढ़कर क्रिया करते हैं ॥७४॥ आगे आचार्यपद पर प्रतिष्ठित करनेकी विधि कहते हैं जिसके छत्तीस गुण संघके चित्तमें चमत्कार पैदा करते हैं उस साधुको गुरुकी अनुमतिसे शुभ मुहूर्तमें सिद्धभक्ति और आचार्यभक्ति करके आचार्यपद ग्रहण करना चाहिए तब 'शान्तिभक्ति करनी चाहिए ।।७५।। विशेषार्थ-चारित्रसारमें भी कहा है कि गुरुकी आज्ञा होनेपर ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, विनयी, धर्मशील और स्थिरमति जो साधु आचार्यपदके योग्य होता है वह गुरुके सन्मुख सिद्धभक्ति और आचार्यभक्ति पूर्वक आचार्य पदवीको ग्रहण करता है, तब शान्तिभक्ति करता है। आचार्यपद प्रदानसे आशय यह है कि गुरु संघके समक्ष यह कहकर कि आजसे आप प्रायश्चित्तशास्त्रके अध्ययन, दीक्षादान आदि आचार्यकार्यको करें, पिच्छिका समर्पित करते हैं । उसका ग्रहण ही आचार्यपदका ग्रहण है ॥७॥ आगे आचार्यके छत्तीस गुणोंको कहते हैं आचारवत्त्व आदि आठ, बारह तप, दस स्थितिकल्प और छह आवश्यक ये छत्तीस गुण आचार्यके होते हैं ॥७६॥ विशेषार्थ-दोनों ही जैन परम्पराओंमें आचार्यके छत्तीस गुण कहे हैं किन्तु संख्या में एकरूपता होते हुए भी भेदोंमें एकरूपता नहीं हैं। श्वेताम्बरं परम्पराके अनुसार-पाँच इन्द्रियोंको जो वश में करता है, नौ बाड़से विशुद्ध ब्रह्मचर्यका पालता है, पाँच महाव्रतोंसे युक्त होता है, पाँच आचारोंको पालनमें समर्थ है, पाँच समिति और तीन गुप्तिका पालक है, १. 'पंचिंदिय संवरणो तह नवविहवह्मचेर गुत्तिधरो। पंच महन्वयजुत्तो पंचविहाचारपालणसमत्थो । पंचसमिइ तिगुत्तो इह अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो । चउव्विहकसायमुक्को छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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