________________
नवम अध्याय
६७३
वाचनां गृहीत्वा तदनु स्वाध्यायं गृह्णतः श्रुतभक्तिमाचार्यभक्ति च कृत्वा गृहीतस्वाध्यायः कृतश्रुतभक्तयः स्वाध्यायं निष्ठाप्य समाप्तौ शान्तिभक्ति कुर्युरिति ॥५८॥ अथ सिद्धान्तादिवाचनाक्रियातिदेशार्थ तदर्थाधिकारविषयकायोत्सर्गोपदेशार्थं च श्लोकद्वयमाह
कल्प्यः क्रमोऽयं सिद्धान्ताचारवाचनयोरपि । एकैकार्थाधिकारान्ते व्युत्सर्गास्तन्मुखान्तयोः ॥५९॥ सिद्धश्रुतगणिस्तोत्रं व्युत्सर्गाश्चातिभक्तये ।
द्वितीयादिदिने षट् षट् प्रदेया वाचनावनौ ॥६०॥ कल्प्य इत्यादि । सिद्धान्तवाचनां वृद्धव्यवहारादाचारवाचनां वा सिद्धश्रुतभक्तिभ्यां प्रतिष्ठाप्य बृहत्स्वाध्यायं च श्रुताचार्यभक्तिभ्यां प्रतिपद्य तद्वाचना दीयते । ततश्च स्वाध्यायं श्रुतभक्त्या निष्ठाप्य शान्तिभक्त्या क्रियां निष्ठापयेदिति भावः । एकैकेत्यादि । उक्तं च चारित्रसारे-'सिद्धान्तस्यार्थाधिकाराणां समाप्तौ एकैकं कायोत्सर्ग कुर्यादिति । तन्मुखान्तयोः-एकैकस्यार्थाधिकारस्यारम्भे समाप्ती च निमित्तभूते । उत्तरेण संबन्धोऽस्य कर्तव्यः ॥५९॥
अतिभक्तये-सिद्धान्ताद्यर्थाधिकाराणां तु बहमान्यत्वादेतदुक्तम् । द्वितीयादिदिने तक्रियैव कार्येति भावः ॥६०॥
अथ संन्यास क्रियाप्रयोगविधि श्लोकद्वयेनाह
वह दिन श्रुतपंचमीके नामसे प्रसिद्ध है। उस दिन साधु श्रुतस्कन्धकी स्थापना करके स्वाध्याय ग्रहण करते हैं। मगर गृहस्थको द्वादशांगरूप सूत्रका स्वाध्याय करनेका अधिकार नहीं है इसलिए वह केवल भक्ति करता है। द्वादशांगरूप श्रुत तो नष्ट हो चुका है । षट्खण्डागम, कसायपाहुड और महाबन्ध सिद्धान्त ग्रन्थ तो आचार्यप्रणीत ग्रन्थ हैं इनका स्वाध्याय श्रावक भी कर सकते हैं। उसीकी विधि ऊपर कही है। चारित्रसारमें भी कहा है कि श्रत पंचमीके दिन सिद्धभक्ति और श्रुतभक्तिपूर्वक वाचनाको ग्रहण करके उसके बाद स्वाध्यायको ग्रहण करते समय श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति पूर्वक स्वाध्यायको ग्रहण करे । और श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्यायको समाप्त करके अन्तमें शान्तिभक्ति करनी चाहिए ॥५७-५८॥
सिद्धान्त आदिकी वाचना सम्बन्धी क्रियाकी विशेष विधि बतानेके लिए और उसके अर्थाधिकारोंके सम्बन्धमें कायोत्सर्गका विधान करनेके लिए दो श्लोक कहते हैं
ऊपर श्रुतपंचमीके दिन जो विधि बतलायी है वही विधि सिद्धान्त वाचना और आचारवाचनामें भी करनी चाहिए। अर्थात् सिद्धान्तवाचना और वृद्ध साधुओंके अनुसार आचारवाचनाको सिद्धभक्ति और श्रुतभक्तिपूर्वक स्थापित करके और श्रुतभक्ति तथा आचार्यभक्तिपूर्वक बृहत् स्वाध्यायको स्वीकारके उसकी वाचना दी जाती है। उसके बाद श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्यायको समाप्त करके शान्तिभक्तिपूर्वक उस क्रियाको पूर्ण किया जाता है । तथा सिद्धान्तके प्रत्येक अर्थाधिकारके अन्तमें कायोत्सर्ग करना चाहिए। तथा प्रत्येक अर्थाधिकारके अन्तमें और आदिमें सिद्धभक्ति और आचार्यभक्ति करनी चाहिए। वाचनाके दूसरे-तीसरे आदि दिनों में वाचनाके स्थानपर छह-छह कायोत्सर्ग करना चाहिए । सिद्धान्त आदिके अर्थाधिकारोंके अत्यन्त आदरणीय होनेसे उनके प्रति अति भक्ति प्रदर्शित करनेके लिए उक्त क्रिया की जाती है ।।५९-६०॥
आगे संन्यासपूर्वक मरणकी विधि दो श्लोकोंसे कहते हैं८५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org