________________
६७४
धर्मामृत ( अनगार) संन्यासस्य क्रियादौ सा शान्तिभक्त्या विना सह । अन्तेऽन्यदा बृहद्भक्त्या स्वाध्यायस्थापनोज्झने ॥६॥ योगेऽपि शेयं तत्रात्तस्वाध्यायः प्रतिचारकैः ।
स्वाध्यायाग्राहिणां प्राग्वत् तदाद्यन्तदिने क्रिया ॥३२॥ आदौ-संन्यासस्यारम्मे । सा-श्रुतपञ्चम्युक्ता । केवलमत्र सिद्धश्रुतभक्तिभ्यां श्रुतस्कन्धवत् संन्यासः ६ प्रतिष्ठाप्यः । अन्ते-क्षपकेऽतीते संन्यासो निष्ठाप्य इति भावः। अन्यदा-आद्यन्तदिनाभ्यामन्येषु दिनेषु । बृहदित्यादौ कर्तव्य इत्युपस्कारः ॥६॥
योगेऽपि-रात्रियोगे वर्षायोगेऽपि वा अन्यत्र गृहीतेऽपि सति । शेयं-शयितव्यम् । तत्र-संन्यास९ वसतो। प्रतिचारकैः-क्षपकशुश्रूषकैः । प्राग्वत्-श्रुतपञ्चमीवत् । तदित्यादिसंन्यासस्यारम्भदिने समाप्तिदिने च सिद्धश्रुतशान्तिभक्तिभिर्गृहस्थैः क्रिया कार्येति भावः ॥६२॥
अथ अष्टाह्निकक्रियानिर्णयार्थमाह१२
कुर्वन्तु सिद्धनन्दीश्वरगुरुशान्तिस्तवैः क्रियामष्टौ।
शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने ॥३॥
कुर्वन्तु-अत्र बहुत्वनिर्देशः संभूय संघेनैव क्रिया कार्येति ज्ञापनार्थः । शुचिः-आषाढः । ऊर्ज:१५ कार्तिकः । तपस्यः-फाल्गुनः ।।६३॥
अथाभिषेकवन्दनाक्रियां मङ्गलगोचरक्रियां च लक्षयति
संन्यासके आदिमें शान्तिभक्तिके बिना शेष सब क्रिया श्रुतपंचमीकी तरह करनी चाहिए । अर्थात् श्रुतस्कन्धकी तरह केवल सिद्धभक्ति और श्रुतभक्तिपूर्वक संन्यासमरणकी स्थापना करनी चाहिए। तथा संन्यासके अन्तमें वही क्रिया शान्तिभक्तिके साथ करनी चाहिए । अर्थात् समाधिमरण करनेवालेका स्वर्गवास हो जानेपर संन्यासकी समाप्ति शान्तिभक्ति सहित उक्त क्रियाके साथ की जाती है। तथा संन्यासके प्रथम और अन्तिम दिनको छोड़कर शेष दिनोंमें स्वाध्यायकी स्थापना बृहत् श्रुतभक्ति और बृहत् आचार्यभक्ति करके की जाती है और उसकी समाप्ति बृहत् श्रुतभक्ति पूर्वक की जाती है। तथा जो समाधिमरण करनेवाले क्षपककी सेवा करनेवाले साधु हैं और जिन्होंने वहाँ प्रथम दिन स्वाध्यायकी स्थापना की है उन्हें उसी वसतिकामें सोना चाहिए जिसमें संन्यास लिया गया है । यदि उन्होंने रात्रियोग और वर्षायोग अन्यत्र भी लिया हो तो भी उन्हें वहीं सोना चाहिए। किन्तु जो गृहस्थ परिचारक स्वाध्याय ग्रहण नहीं कर सकते हैं उन्हें संन्यासके प्रथम और अन्तिम दिन श्रुतपंचमीकी तरह सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति और शान्तिभक्ति पूर्वक ही क्रिया करनी चाहिए ॥६१-६२॥
आगे अष्टाह्निका पर्वकी क्रिया कहते हैं
आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुनमासके शुक्ल पक्षकी अष्टमीसे लेकर पौर्णमासी पर्यन्त प्रतिदिन मध्याह्नमें प्रातःकालके स्वाध्यायको ग्रहण करनेके बाद सिद्धभक्ति, नन्दीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्तिके साथ आचार्य आदि सबको मिलकर क्रिया करनी चाहिए ॥६३।।
आगे अभिषेकवन्दना क्रिया और मंगलगोचर क्रियाको कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org