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धर्मामृत (बनगार) चारित्रसारेऽप्युक्तम्-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे सिद्धचारित्रप्रतिक्रमणनिष्ठितकरणचतुर्विंशतितीर्थकरभक्तिचारित्रालोचनागुरुभक्तयो बृहदालोचनागुरुभक्तिर्लध्वीयस्याचार्यभक्तिश्च करणीया ३ इति ॥५६॥ अथ यतीनां श्रावकाणां च श्रुतपञ्चमी क्रियाप्रयोगविधि श्लोकद्वयेनाह
बृहत्या श्रुतपञ्चम्यां भक्त्या सिद्धथतार्थया। श्रुतस्कन्धं प्रतिष्ठाप्य गृहीत्वा वाचनां बृहन् ॥५७॥ क्षम्यो गृहीत्वा स्वाध्यायः कृत्या शान्तिनुतिस्ततः।
यमिनां गृहिणां सिद्धश्रुतशान्तिस्तवाः पुनः॥५८॥ श्रुतपञ्चम्यां-ज्येष्ठशुक्लपञ्चम्याम् । वाचनां-श्रुतावतारोपदेशम् ॥५७॥ क्षम्यः-बृहच्छुतभक्त्या निष्ठाप्य इत्यर्थः। गृहीत्वा-बृहच्छ्रुताचार्यभक्तिभ्यां प्रतिष्ठाप्य इत्यर्थः । एतच्च बृहन्निति विशेषणाल्लभ्यते । गृहिणां-स्वाध्यायाग्राहिणां श्रावकाणाम् । उक्तं च चारित्रसारे-पञ्चम्यां सिद्धश्रुतभक्तिपूर्विकां है। फिर चारित्रालोचनापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद साधुओंको लघुआचार्यभक्तिपूर्वक आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए। फिर आचार्य सहित सब साधुओंको प्रतिक्रमणभक्ति करनी चाहिए। तब आचार्य प्रतिक्रमण करते हैं। उसके बाद वीरभक्ति और चतुर्विशति तीर्थंकर भक्तिके साथ शान्तिभक्ति करनी चाहिए। फिर चारित्रालोचनाके साथ बृहत् आचार्यभक्ति करनी चाहिए। फिर बृहत् आलोचनाके साथ मध्य आचार्यभक्ति करनी चाहिए। फिर लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। अन्तमें हीनता और अधिकता दोषकी विशुद्धिके लिए समाधिभक्ति करनी चाहिए'। चारित्रसार में भी कहा है-'पाक्षिक, चातुर्मा: सिक और वार्षिक प्रतिक्रमणमें सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, प्रतिक्रमण, निष्ठितकरण, चतुर्विंशति तीर्थंकरभक्ति, चारित्रालोचना, आचार्यभक्ति, बृहत् आलोचना, बृहत् आचार्यभक्ति और लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए।'
___ ग्रन्थकार पं. आशाधरजीने अपनी संस्कृत टीकामें अन्तमें लिखा है, यहाँ तो हमने दिशामात्र बतलायी है। किन्तु साधुओंको प्रौढ़ आचार्यके पासमें विस्तारसे सब जान-देखकर करना चाहिए। साधुओंके अभाव या उनकी विरलताके कारण प्रतिक्रमणकी विधिका ज्ञान हीन होता गया ऐसा लगता है। आजके साधु तो साधु, आचार्यों में भी प्रतिक्रमणकी विधिका ज्ञान अत्यल्प है । अस्तु, व्रतारोपण आदि विषयक प्रतिक्रमणोंमें गुरुआचार्यभक्ति और मध्यआचार्यभक्ति नहीं की जाती। कहा है-'शेष प्रतिक्रमणोंमें चारित्रालोचना, बृहत् आलोचना और दोनों आचार्यभक्तियोंको छोड़कर शेष विधि क्रमसे होती है ॥५२-५क्षा
आगे मुनियों और श्रावकोंके लिए श्रुत पंचमीके दिनकी क्रियाका विधान कहते है
साधुओंको ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् श्रुतभक्तिपूर्वक श्रुतस्कन्धकी स्थापना करके वाचना अर्थात् श्रुतके अवतारका उपदेश ग्रहण करना चाहिए । उसके बाद श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करके स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए और श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्यायको समाप्त करना चाहिए। समाप्तिपर शान्तिभक्ति करनी चाहिए। किन्तु जिन्हें स्वाध्यायको ग्रहण करनेका अधिकार नहीं है उन श्रावकोंको सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और शान्तिभक्ति करनी चाहिए ॥५७-५८॥
विशेषार्थ-ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको श्रुतपंचमी कहते हैं क्योंकि उस दिन आचार्य भूतबलीने षट्खण्डागमकी रचना करके उसे पुस्तकारूढ़ करके उसकी पूजा की थी। तभीसे
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