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________________ नवम अध्याय ६६९ संबन्धः। सूरेः-आचार्यस्याग्ने कृत्वेति संबन्धः।' सवृत्तालोचने-इच्छामि भंते चरित्तायारो इत्यादि दण्डकपञ्चकसाम्यया चारित्रालोचनया युङ्क्ते ॥५३॥ वन्दित्वाचार्यमाचार्यभक्त्या लठ्या ससूरयः। प्रतिक्रान्तिस्तुति कुर्यः प्रतिक्रामेत्ततो गणी ॥५४॥ अथ वीरस्तुति शान्तिचतुविशतिकीर्तनाम् । सवृत्तालोचनां गुर्वी सगुर्वालोचनां यताः ॥५५॥ मध्यां सूरिनुति तां च लध्वीं कुर्यः परे पुनः । प्रतिक्रमा बृहन्मध्यसूरिभक्तिद्वयोज्झिताः ॥५६॥ . वन्दित्वा, शिष्याः आचार्यस्तु देवमेव वयीकृत्याचार्यवन्दनामिति शेषः । प्रतिक्रामन-प्रतिक्रमणदण्डकान् पठेत् ॥५४॥ शान्तीत्यादि-शान्तिकीर्तनां विधेयरक्षामित्यादिकम् । चतुर्विशतिकीर्तनं-'चउवीसं तित्थयरे' इत्यादिकम् । सवृत्तालोचनां-लघ्व्या चारित्रालोचनया सहिताम् । गुर्वी-सिद्धस्तुत्यादिकाम् । चारित्रालोचनासहितबृहदाचार्यभक्तिमित्यर्थः । सगुलोचनां-देसकुलजाइ इत्यादिका बृहदालोचनासहित- १२ मध्याचार्यभक्तिमित्यर्थः ॥५५॥ तां लध्वी 'प्राज्ञः प्राप्त' इत्यादिकां क्षुल्लकाचार्यभक्तिरित्यर्थः। परनतारोपणादिविषयाश्चत्वारः । उक्तं च 'सिद्धचारित्रभक्तिः स्याद् बृहदालोचना ततः। देवस्य गणिनो वाग्रे सिद्धयोगिस्तुती लघू । चारित्रालोचना कार्या प्रायश्चित्तं ततस्तथा। सूरिभक्त्यास्ततो लघ्व्या गणिनं वन्दते यतिः ।। और आलोचना करके तथा प्रायश्चित्त लेकर लघु आचार्यभक्तिके द्वारा आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए। फिर आचार्य सहित शिष्य और सधर्मा मुनि प्रतिक्रमणभक्ति करें। फिर आचार्य प्रतिक्रमण दण्डकका पाठ करें। फिर साधुओंको वीरभक्ति करनी चाहिए। फिर आचार्यके साथ शान्तिभक्ति और चतुर्विशति तीर्थकरभक्ति करनी चाहिए। फिर चारित्रकी आलोचनाके साथ बृहत् आचार्यभक्ति करनी चाहिए। उसके बाद बृहत् आलोचनाके साथ मध्य आचार्यभक्ति तथा लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। अन्य प्रतिक्रमणोंमें बृहद् आचार्यभक्ति और मध्य आचार्यभक्ति नहीं की जाती ।।५२-५६॥ विशेषार्थ-यहाँ पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमणके समय की जानेवाली विधिका वर्णन है। ये प्रतिक्रमण आचार्य, शिष्य तथा अन्य साधु सम्मिलित रूपसे करते हैं। सबसे प्रथम आचार्यकी वन्दना की जाती है। आचार्य-वन्दनाकी विधि पहले बतला आये हैं कि आचार्यकी वन्दना लघुसिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्ति पढ़कर गवासनसे करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धान्तविद् हो तो सिद्ध श्रुत और आचार्यभक्तिके द्वारा उसकी वन्दना करनी चाहिए। इन तीनों भक्तियोंको पढ़ते समय प्रत्येक भक्तिके प्रारम्भमें अलग-अलग तीन वाक्य बोले जाते हैं। सिद्ध भक्तिके प्रारम्भमें 'नमोऽस्तु प्रतिष्ठापनसिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' 'नमस्कार हो, मैं प्रतिष्ठापन सिद्धभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करता हूँ' यह वाक्य बोला जाता है, तब सिद्धभक्ति की जाती है। इसी प्रकार श्रुतभक्तिके प्रारम्भमें 'नमोऽस्तु प्रतिष्ठापनश्रतभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम' वाक्य और आचार्य भक्तिके प्रारम्भमें 'निष्ठापनाचार्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' यह वाक्य बोला जाता है। इसके पश्चात् अपने शिष्यों और सधर्माओंके साथ आचार्य इष्टदेवको नमस्कार करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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