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________________ ६७० धर्मामृत ( अनगार) स्यात्प्रतिक्रमणा भक्तिः प्रतिक्रामेत्ततो गणी । वीरस्तुतिजिनस्तुत्या सह-शान्तियुतिर्मता ॥ वृत्तालोचनया सार्द्ध गुर्वी सूरिनुतिस्ततः। गुगलोचनया साद्धं मध्याचार्यस्तुतिस्तथा ॥ 'समता सर्वभूतेषु' इत्यादि पढ़कर 'सिद्धानुद्भूतकर्म' इत्यादि बड़ी सिद्धभक्ति और 'येनेन्द्रान्' इत्यादि बड़ी चारित्रभक्ति करते हैं। तथा अर्हन्त भगवान्के सम्मुख 'इच्छामि भंते ! पक्खियम्मि आलोचेऊ' से लेकर 'जिणगुणसंपत्ति होऊ मझ' पर्यन्त बृहती आलोचना करते हैं। यह आचार्य, शिष्य तथा सधर्माओंकी क्रिया समान है। किन्तु इतना अन्तर है। यहाँ सिद्धभक्तिके प्रारम्भमें यह वाक्य बोलना होता है-'सर्वातिचारविशुद्धयर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्।' अर्थात् मैं सब दोषोंकी विशुद्धिके लिए इस पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रियामें पूर्वाचार्योंके अनुसार समस्त कर्मोंके क्षयके लिए भावपूजा, वन्दनास्तुतिके साथ सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ। इसी तरह चारित्रभक्तिके पहले यह वाक्य बोलना चाहिए-'सर्वातिचारविशुद्धयर्थ "आलोचनाचारित्रभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् ।' किन्तु आचार्य 'णमो अरहताणं' इत्यादि नमस्कार मन्त्रके पाँचों पदोंको पढ़कर कायोत्सर्ग करके 'थोस्सामि' इत्यादि पढ़कर फिर 'तवसिद्ध' इत्यादि गाथाको अंचलिका सहित पढ़कर, पूर्वोक्त विधि करते हैं। फिर 'प्रावृट्काले' इत्यादि योगिभक्तिको अंचलिका सहित पढ़कर 'इच्छामि भंते चारित्ताचारो तेरसविहो' इत्यादि पाँच दण्डकोंको पढ़कर तथा 'वदसमिदिदिय' इत्यादिसे लेकर 'छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं' तक तीन बार पढ़कर देवके आगे अपने दोषोंकी आलोचना करते हैं । तथा दोषके अनुसार प्रायश्चित्त लेकर 'पंच महाव्रतम्' इत्यादि पाठको तीन बार पढ़कर योग्य शिष्य आदिसे अपने प्रायश्चित्तको कहकर देवके प्रति गुरुभक्ति करते हैं। यहाँ भी 'नमोऽस्तु सर्वातिचारविशुद्धयर्थं सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' तथा 'नमोऽस्तु सर्वातिचारविशुद्धयर्थं आलोचनायोगिभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' तथा 'नमोऽस्तु निष्ठापनाचार्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' ये तीनों वाक्य से उच्चारण किये जाते हैं। इसके बाद जब आचार्य प्रायश्चित्त कर लें तो उनके आगे शिष्य और सधर्मा साधु लघुसिद्धभक्ति, लघुयोगिभक्ति, चारित्रभक्ति तथा आलोचना करके अपने-अपने दोषों के अनुसार प्रायश्चित्त लें फिर 'श्रुतजलधि' इत्यादि लघुआचार्यभक्तिके द्वारा आचार्य की वन्दना करें। फिर आचार्य, शिष्य, सधर्मा सब मिलकर' प्रतिक्रमण भक्ति करें। अर्थात् 'सर्वातिचारविशुद्धयर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमण क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतं प्रतिक्रमणभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्' यह बोलकर णमो अरहंताणं' इत्यादि दण्डकको पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। लघुसिद्धभक्ति आदि तो साधुओंकी भी आचार्यके समान जानना । किन्तु चार्यकी वन्दना होने के बाद आचार्यको 'थोस्सौमि' इत्यादि दण्डकको पढ़कर और १. यह सामायिक दण्डक है। २. यह चतुर्विशतिस्तव है। ये सब दण्डक और भक्तियां पं. पन्नालालजी सोनीके द्वारा संगृहीत क्रिया कलापमें हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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