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धर्मामृत ( अनगार ) अथ क्रियाविषयतिथिनिर्णयार्थमाह
त्रिमुहूर्तेऽपि यत्रार्क उदेत्यस्तमयत्यथ ।
स तिथिः सकलो ज्ञेयः प्रायो धर्येषु कर्मसु ॥५१॥ प्रायः- देशकालादिवशादन्यथापि । बहुधा व्यवहर्तृणां प्रयोगदर्शनादेतदुच्यते ॥५१॥ अथ प्रतिक्रमणाप्रयोगविधि श्लोकपञ्चकेनाचष्टे
पाक्षिक्यादि-प्रतिक्रान्तौ वन्देरन् विधिवद् गुरुम् । सिद्धवृत्तस्तुती कुर्याद् गुर्वी चालोचनां गणी ॥५२॥ देवस्याग्ने परे सूरेः सिद्धयोगिस्तुती लघू।
सवृत्तालोचने कृत्वा प्रायश्चित्तमुपेत्य च ॥५३॥ पाक्षिक्यादिप्रतिक्रान्ती-पाक्षिक्यां चातुर्मासिक्यां सांवत्सरिक्यां च प्रतिक्रमणायां क्रियमाणायाम् । विधिवद्-लब्ध्या सिद्धेत्यादिपूर्वोक्तविधिना । गणि उणादाविदं तोयं (?) गुर्वी 'इच्छामि भंते अट्टमियहि १२ आलोचेउमित्यादि । दण्डकस्कन्धसाध्यां सैषा सूरेः शिष्याणां च साधारणी क्रिया ॥५२॥ देवस्याग्ने गणीकृत्वेति
कहे अनुसार क्रिया करनी चाहिए। तथा व्यवहारी जनोंकी परम्परासे सुना जाता है कि उन प्रतिमाओंकी अपूर्वता छठे मास में होती है अर्थात् इतने कालके बाद उनका दर्शन करनेपर वे प्रतिमा अपूर्व मानी जाती हैं ॥५०॥
आगे क्रियाओंके विषयमें तिथिका निर्णय करते हैं
जिस दिन तीन मुहूर्त भी सूर्यका उदय अथवा अस्त हो वह सम्पूर्ण तिथि प्रायः करके धार्मिक कार्यों में मान्य होती है ॥५१॥
विशेषार्थ-सिंहनन्दिके व्रततिथिनिर्णयमें कहा है कि जैनोंके यहाँ उदयकालमें छह घड़ी प्रमाण तिथिका मान व्रतके लिए मान्य है। छह घड़ी तीन मुहूर्त प्रमाण होती है। यहाँ 'प्रायः' पद दिया है। ग्रन्थकार पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है कि देशकालके कारण इससे अन्यथा भी व्यवहार हो सकता है। बहुधा व्यवहारी जनोंका ऐसा ही व्यवहार देखा जाता है इसलिए ऐसा कहा है। सिंहनन्दिने भी अपने ग्रन्थमें किन्हीं पद्मदेवके ऐसे ही कथनपर-से यही शंका की है और उसका समाधान भी यही किया है। यथा-यहाँ कोई शंका करता है कि पद्मदेवने तिथिका मान छह घड़ी बतलाते हुए कहा है कि प्रायः धर्मकृत्योंमें इसीको ग्रहण करना चाहिए । यहाँ 'प्रायः' शब्दका क्या अर्थ है ? उत्तर देते हैं कि देश-काल आदिके भेदसे तिथिमान ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए 'प्रायः' कहा है ॥५॥
आगे प्रतिक्रमणके प्रयोगकी विधि पाँच श्लोकोंसे कहते हैं
पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण करनेपर शिष्यों और सधर्माओंको पहले बतलायी हुई विधिके अनुसार आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए। इसके अनन्तर अपने शिष्यों और सधर्माओंके साथ आचार्यको गुरुसिद्धभक्ति और गुरुचारित्रभक्ति करनी चाहिए। तथा अर्हन्तदेवके सम्मुख बड़ी आलोचना करनी चाहिए। उसके बाद आचायके आगे शिष्यों और सधर्माओंको लघुसिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति, चारित्रभक्ति १. 'अत्र संशयं करोति पद्मदेवैः 'प्रायो धर्मेषु कर्मसु' इत्यत्र प्राय इत्यव्ययं कथितम् । तस्य कोऽर्थः ? उच्यते
देशकालादिभेदात तिथिमानं ग्राह्यम् ।'-[व्रततिथिनिर्णय, प. १८२]
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