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नवम अध्याय
६६७
अथ सिद्धप्रतिमायां तीथंकरजन्मन्यपूर्वजिनचत्ये च क्रियोपदेशार्थमाह
सिद्धभक्त्यैकया सिद्धप्रतिमायां क्रिया मता।
तीर्थकृज्जन्मनि जिनप्रतिमायां च पाक्षिको ॥४८॥ स्पष्टम् ॥४८॥
अयापूर्वचैत्यवन्दनानित्यदेववन्दनाभ्यामष्टम्यादिक्रियासु योगे चिकीर्षिते चैत्यपञ्चगुरुभक्त्योः प्रयोगस्थानमाह
दर्शनपूजात्रिसमयवन्दनयोगोऽष्टमीक्रियादिषु चेत् ।
प्राक हि शान्तिभक्तेः प्रयोजयेच्चैत्यपञ्चगुरुभक्ती ॥४९॥ दर्शनपूजा-अपूर्वचैत्यवन्दना । उक्तं च चारित्रसारे-'अष्टम्यादिक्रियासु दर्शनपूजात्रिकाल- ९ देववन्दनायोगे शान्तिभक्तितः प्राक् चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभक्ति च कुर्यात् इति ॥४९॥ अथैकत्र स्थानेऽनेकापूर्वचैत्यदर्शने क्रियाप्रयोगविषये पुनस्तद्दर्शने तदपूर्वत्वकालेयत्तां चोपदिशति
दृष्ट्वा सर्वाण्यपूर्वाणि चैत्यान्येकत्र कल्पयेत् ।
क्रियां तेषां तु षष्ठेऽनुश्रूयते मास्यपूर्वता ॥५०॥ एकत्र-एकस्मिन्नभिरुचिते जिनचैत्यविषये । अनुश्रूयते-व्यवहर्तृजनपारंपर्येणाकर्ण्यते ॥५०॥ के दिन सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति करनी चाहिए।
इसके सम्बन्धमें ग्रन्थकार पं. आशाधरजीने अपनी संस्कृत टीकामें लिखा है कि संस्कृत क्रियाकाण्डका यह विधान नित्य देववन्दनाके साथ अष्टमी-चतुर्दशीकी क्रियाको करनेवालोंके लिए है ऐसा वृद्ध सम्प्रदाय है ॥४७॥
आगे सिद्ध प्रतिमा, तीर्थकर भगवान्का जन्मकल्याणक और अपूर्व जिनप्रतिमा के विषयमें करने योग्य क्रिया कहते हैं
सिद्ध प्रतिमाकी वन्दनामें एक सिद्धभक्ति ही करनी चाहिए। और तीर्थकरके जन्मकल्याणक तथा अपूर्व जिनप्रतिमामें पाक्षिकी क्रिया अर्थात् सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति और शान्तिभक्ति करनी चाहिए ॥४८॥ ।
अपूर्व चैत्यवन्दना और नित्यदेववन्दनाको यदि अष्टमी आदि क्रियामें मिलाना इष्ट हो तो चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति कब करनी चाहिए, यह बतलाते हैं
यदि अष्टमी आदि क्रियाओंके साथ अपूर्व चैत्यवन्दना और त्रैकालिक नित्यदेववन्दना करनेका योग उपस्थित हो तो शान्तिभक्तिसे पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए ॥४९॥
विशेषार्थ-चारित्रसारमें ऐसा ही विधान है। यथा-'अष्टमी आदि क्रियाओंके साथ अपूर्व चैत्यवन्दना और त्रिकालदेववन्दनाका योग होनेपर शान्तिभक्तिसे पहले चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए।' ॥४९॥
एक ही स्थानपर अनेक अपूर्व प्रतिमाओंका दर्शन होनेपर क्रिया प्रयोगकी विधि तथा कितने कालके बाद उन्हीं प्रतिमाओंका दर्शन होनेपर उन्हें अपूर्व माना जाये यह
बतलाते हैं
__ यदि एक ही स्थानपर अनेक अपूर्व प्रतिमाओंका दर्शन हो तो उन सब प्रतिमाओंका दर्शन करके उनमें-से जिसकी ओर मन विशेष रूपसे आकृष्ट हो उसीको लक्ष्य करके पहले
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