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नवम अध्याय
६५९
उक्तं च
'मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यत् मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ।। विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥'
-[ समय. कलश १११, श्लो. ]||२९॥ १ अथ समाधिमहिम्नोऽशक्यस्तवनत्वमभिधत्ते
यः सूते परमानन्दं भूर्भुवः स्वर्भजामपि ।
काम्यं समाधिः कस्तस्य क्षमो माहात्म्यवर्णने ॥३०॥ भूर्भुवः स्वर्भुजां-अधोमध्योर्वलोकयतीनाम् ॥३०॥ अथ प्राभातिकदेववन्दनानन्तरकरणीयामाचार्यादिवन्दनामुपदिशति
लच्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात् ।
सैद्धान्तोऽन्तःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्तुति विना ॥३१॥ गवासनात्-गवासने उपविश्य । सैद्धान्त:-सिद्धान्तविद् गणी । अन्त:श्रुतस्तुत्या-अन्तमध्ये कृता श्रुतस्तुतिर्यस्याः सिद्धगणिस्तुतेः लध्वीभिः सिद्धश्रुताचार्यभक्तिभिस्तिसृभिरित्यर्थः । तथेत्यादिआचार्या- १५ चन्द्राचार्यने कहा है-जो कर्मनयके अवलम्बनमें तत्पर हैं, उसके पक्षपाती हैं वे भी डूबते हैं । जो ज्ञानको तो जानते नहीं और ज्ञानके पक्षपाती हैं, क्रियाकाण्डको छोड़ स्वच्छन्द हो स्वरूपके विषयमें आलसी हैं वे भी डूबते हैं। किन्तु जो स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप हुए कर्मको तो नहीं करते और प्रमादके भी वश नहीं होते, वे सब लोकके ऊपर तैरते हैं। . जो ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानते भी नहीं और व्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप क्रियाकाण्डके आडम्बरको ही मोक्षका कारण जान उसीमें लगे रहते हैं उन्हें कर्मनयावलम्बी कहते हैं वे संसार-समुद्र में डूबते हैं। तथा जो आत्माके यथार्थ स्वरूपको तो जानते नहीं
और उसके पक्षपातवश व्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्रको निरथक जानकर छोड़ बैठते हैं ऐसे ज्ञाननयके पक्षपाती भी डूबते हैं; क्योंकि वे बाह्य क्रियाको छोड़कर स्वेच्छाचारी हो जाते हैं
और स्वरूपके विषयमें आलसी रहते हैं। किन्तु जो पक्षपातका अभिप्राय छोड़कर निरन्तर ज्ञानरूपमें प्रवृति करते हैं, कर्मकाण्ड नहीं करते, किन्तु जबतक ज्ञानरूप आत्मामें रमना शक्य नहीं होता तबतक अशुभ कर्मको छोड़ स्वरूपके साधनरूप शुभ क्रियामें प्रवृत्ति करते हैं, वे कर्मों का नाश करके संसारसे मुक्त हो लोकके शिखरपर विराजमान होते हैं ।।२९||
आगे कहते हैं कि समाधिकी महिमा कहना अशक्य है
जो समाधि अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोकके स्वामियोंके लिए भी चाहने योग्य परम आनन्दको देती है, उस समाधिका माहात्म्य वर्णन करने में कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है ॥३०॥ . आगे प्रातःकालीन देववन्दनाके पश्चात् आचार्य आदिकी वन्दना करनेका उपदेश देते हैं
साधुको गवासनसे बैठकर लघुसिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिसे आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धान्तके ज्ञाता हों तो लघुसिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति
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