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________________ ३ ६ ६५८ १२ धर्मामृत (अनगार ) अथ कायोत्सर्गानन्तरं कृत्यं श्लोकद्वयेनाह - चतुर्विंशतितीर्थ कराणाम् ||२७|| आलोच्य - 'इच्छामि भंते चेइयभत्तिकाउसग्गो कओ' इत्यादिना पूर्ववत् । आनम्रकाङ्घ्रिदोरित्यर्थः । ९ उद्भः चैत्यभक्तिवदत्र प्रदक्षिणानभ्युपगमात् । तथा — तेन विज्ञाप्य क्रियामित्यादि प्रबन्धोक्तेन प्रकारेण । स्वस्य ध्यायेत् — आत्मध्यानं विदध्यादित्यर्थः ॥ २८ ॥ अथात्मध्यानमन्तरेण केनचिन्मोक्षो न स्यादित्युपदिशतिनात्मध्यानाद्विना किंचित्मुमुक्षोः कर्महीष्टकृत् । किंत्वस्त्र परिकर्मेव स्यात् कुण्ठस्याततायिनी ॥ २९ ॥ इष्टकृत् - मोक्षसाधकम् । आततायिनि - हन्तुमुद्यते शत्रो । प्रोच्य प्राग्वत्ततः साम्यस्वामिनां स्तोत्रदण्डकम् । वन्दनामुद्रया स्तुत्वा चैत्यानि त्रिप्रदक्षिणम् ॥२७॥ आलोच्य पूर्ववत्पञ्चगुरून् नुत्वा स्थितस्तथा । समाधि भक्त्याऽस्तमलः स्वस्य ध्यायेद् यथाबलम् ॥२८॥ प्राग्वत् — विग्रहमित्याद्युक्तविधिना । साम्यस्वामिनां - सामायिक प्रयोक्तृणां इस प्रकार कायोत्सर्ग तककी क्रियाओंको बताकर उसके पश्चात् के कार्यको दो श्लोकोंसे कहते हैं चैत्यभक्ति और कायोत्सर्ग करनेपर पहले शरीरको नम्र करके आदि जो विधि कही है उसीके अनुसार सामायिकके प्रयोक्ता चौबीस तीर्थंकरोंकी भक्ति में तन्मय होकर 'थोस्सामि' इत्यादि स्तोत्रदण्डकको पढ़कर तीन प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना मुद्रासे जिनप्रतिमाका स्तवन करे | फिर पहले की तरह पंचांग नमस्कार करके खड़े होकर 'इच्छामि भंते पंचगुरुभत्तिकाओसग्गो कओ तस्स आलोचेड' हे भगवन्, मैंने पंचगुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग किया, मैं उसकी आलोचना करना चाहता हूँ, इत्यादि बोलकर आलोचना करे । फिर क्रियाकी विज्ञापना आदि करके वन्दनामुद्रापूर्वक पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करके समाधि भक्तिके द्वारा वन्दना सम्बन्धी अतीचारोंको दूर करे । फिर यथाशक्ति अत्मध्यान करे ।।२७-२८।। आगे कहते हैं कि आत्मध्यानके बिना किसीको भी मोक्ष नहीं होता आत्मध्यानके बिना मोक्षके इच्छुक साधुकी कोई भी क्रिया मोक्ष की साधक नहीं हो सकती। फिर भी मुमुक्षु जो आत्मध्यानको छोड़कर अन्य क्रियाएँ करता है वह उसी तरह है जैसे मारने के लिए तत्पर शत्रुके विषय में आलसी मनुष्य शास्त्राभ्यास करता है ||२९|| विशेषार्थ - मोक्षका साधक तो आत्मध्यान ही है । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि जब आत्मध्यान ही मोक्षका साधक है तो मुमुक्षुको आत्मध्यान ही करना चाहिए वन्दना भक्ति आदि क्रियाओंकी क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि आत्मध्यानसे पहले सुमुक्षुको उसके अभ्यासके लिए चित्तको एकाग्र करने के लिए बाह्य क्रियाएँ करनी होती हैं । साधु और गृहस्थ के लिए षट् कर्म आवश्यक बतलाये हैं वह इसी दृष्टि से आवश्यक बतलाये हैं । वे साधुको निरुद्यमी या आलसी नहीं होने देते । आज ऐसे भी मुमुक्षु हैं जो क्रियाकाण्ड व्यर्थ समझकर न तो आत्मसाधना ही करते हैं न क्रियाकर्म ही करते । और ऐसे भी मुमुक्षु साधु हैं जो आत्माकी बात भी नहीं करते और श्रावकोचित क्रियाकाण्डमें ही फँसे रहते हैं। ये दोनों ही प्रकारके मुमुक्षु परमार्थसे मुमुक्षु नहीं हैं । अमृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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