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धर्मामृत (अनगार )
दन्यो यतिराचार्यभक्ति विना लघुसिद्धभक्त्या वन्द्यः । स एव च सैद्धान्तो लघुसिद्धश्रुतभक्तिभ्यां वन्द्य इत्यर्थः । उक्तं च
'सिद्धभक्त्या बृहत्साधुवंन्द्यते लघु साधुना । लव्या सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्तः प्रप्रणम्यते ॥ सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गंणी । सिद्धश्रुतगणिस्तुत्या लघ्व्या सिद्धान्तविद्गणी ॥' [
अथ धर्माचार्यपर्युपास्ति माहात्म्यं स्तुवन्नाह - यत्पादच्छायमुच्छिद्य सद्यो जन्मपथक्लमम् ।
ष्ट निर्वृतिसुधां सूरिः सेव्यो न केन सः ॥ ३२॥
वष्टि – भृशं पुनःपुनर्वा वर्षति । निर्वृतिः - कृतकृत्यतासन्तोषः ॥३२॥
अथ ज्येष्ठयतिवन्दनानुभावं भावयति---"
asनन्यसामान्यगुणाः प्रीणम्ति जगदञ्जसा । तान्महन्महतः साधूनिहामुत्र महीयते ॥३३॥
महन् - पूजयन् । महतः - दीक्षा ज्येष्ठानिन्द्रादिपूज्यान्वा । महीयते — पूज्यो भवति ॥ ३३ ॥ अथ प्राभातिककृत्योत्तरकरणीयमाह
प्रवृत्त्यैवं दिनादौ द्वे नाड्यौ यावद्यथाबलम् ।
मध्याह्नं यावत् स्वाध्यायमावहेत् ॥ ३४ ॥
] ॥३१॥
स्पष्टम् ॥३४॥
अथ निष्ठापित स्वाध्यायस्य मुनेः प्रतिपन्नोपवासस्यास्वाध्यायकाले करणीयमुपदिशति -
और आचार्य भक्ति से उनकी वन्दना करनी चाहिए। तथा आचार्य से अन्य साधुओंकी वन्दना आचार्य भक्तिके बिना सिद्ध भक्तिसे करनी चाहिए। किन्तु यदि साधु सिद्धान्तके वेत्ता हों तो सिद्धभक्ति और श्रुतभक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करनी चाहिए ||३१||
आगे धर्माचार्यकी उपासनाके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं
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जिनके चरणों का आश्रय तत्काल ही संसारमार्ग की थकानको दूर करके निर्वृतिरूपी अमृतकी बारम्बार वर्षा करता है, उन आचार्यकी सेवा कौन नहीं करेगा अर्थात् सभी मुमुक्षुओं के द्वारा वे सेवनीय हैं ||३२||
अपने से ज्येष्ठ साधुओंकी वन्दनाके माहात्म्यको बताते हैं
दूसरोंसे असाधारण गुणोंसे युक्त जो साधु परमार्थसे जगत्को सन्तृप्त करते हैं उन दीक्षामें ज्येष्ठ अथवा इन्द्रादिके द्वारा पूज्य साधुओंकी पूजा करनेवाला इस लोक और परलोक में पूज्य होता है ||३३||
आगे प्रातःकालीन कृत्यके बादकी क्रिया बताते हैं
उक्त प्रकार से प्रभातसे दो घड़ी पर्यन्त देववन्दना आदि करके, दो घड़ी कम मध्याह्नकाल तक यथाशक्ति स्वाध्याय करना चाहिए ||३४||
स्वाध्याय कर चुकने पर यदि मुनिका उपवास हो तो उस अस्वाध्यायकाल में मुनिको क्या करना चाहिए, यह बताते हैं
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