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________________ नवम अध्याय मनसा । सहार्थे करणे वा तृतीया ॥२२॥ द्वीत्यादि-गाथाया द्वावंशी 'णमो अरहताणं णमोसिद्धाणमि'ति । पुनीं 'णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं' इति । एकस्त्वंशो 'णमो लोए सव्वसाहणं' इति । यथाह 'शनैः शनैः मनोऽजस्रं वितन्द्रः सह वायुना। प्रविश्य हृदयाम्भोजे कणिकायां नियन्त्रयेत् ।। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवर्तते। अन्तःस्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ।।' [ ज्ञानार्णव २६।५०-५१ ] 'स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम । जगद्वृत्तं च निःशेषं प्रत्यक्षमिव जायते ॥' | ज्ञानार्णव २६।५४ ] 'स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुः स्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न सन्देहः ॥[ अपि च 'दोपक्खभुआ दिट्ठी अंतमुही सिवसरूव संलीणा । मणपवणक्खविहूणा सहजावत्था स णायव्वा ।। जत्थ गया सा दिट्ठी तत्थ मणं तत्थ संठिय पवणं । मणवयणुभए सुन्नं तहिं च जं फुरइ तं ब्रह्म ॥ [ ]॥२३॥ वायुको धीरे-धीरे बाहर निकाले । इस प्रकार अन्तर्दृष्टि संयमी नौ बार प्राणायाम करके बड़े-से-बड़े पापको भस्म कर देता है ।।२२-२३॥ _ विशेषार्थ-ध्यानकी सिद्धि और चित्तकी स्थिरताके लिए प्राणायाम प्रशंसनीय है। उसके तीन भेद हैं-पूरक, कुम्भक और रेचक । तालुके छिद्रसे बारह अंगुल तक श्वास द्वारा वायुको खींचकर शरीरके भीतर पूरण करनेको पूरक कहते हैं। उस पूरक पवनको नाभिकमलमें स्थिर करके घड़ेकी तरह भरनेको कुम्भक कहते हैं। और उस रोकी हुई वायको धीरे-धीरे बड़े यत्नसे बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं। पूरा णमोकार मन्त्र एक गाथा रूप है। उसके तीन अंश करके कायोत्सर्गके समय चिन्तन करना चाहिए। णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं' के साथ प्राणवायुको अन्दर लेजाकर उसका चिन्तन करे और चिन्तनके अन्तमें वायु धीरे-धीरे बाहर निकाले । फिर ‘णमो आइरियाणं' 'णमो उवज्झायाणं' के साथ प्राणवायुको अन्दर लेजाकर हृदय कमलमें इनका चिन्तन करे और चिन्तनके अन्तमें धीरेधीरे वायु बाहर निकाले । फिर 'णमो लोए सव्व साहूर्ण' के साथ प्राण वायु अन्दर ले जावे और चिन्तनके अन्तमें धीरे-धीरे बाहर निकाले । इस विधिसे २७ स्वासोच्छ्वासोंमें नौ बार नमस्कार मन्त्रका चिन्तन करनेसे पापका विध्वंस होता है। कहा भी है-'निरालसी ध्याताको धीरे-धीरे वायुके साथ मनको निरन्तर हृदय रूपी कमलकी कर्णिकामें प्रवेश कराकर रोकना चाहिए। वहाँ चित्त स्थिर होनेपर संकल्प-विकल्प उत्पन्न नहीं होते, विषयोंकी आशा दर होती है और अन्तरंगमें ज्ञानका स्फुरण होता है। जो प्राणायाम करते हैं उनके चित्त स्थिर हो जाते हैं और समस्त जगत्का वृत्तान्त प्रत्यक्ष जैसा दीखता है। जो योगी वायुके संचारमें चतुर होता है अर्थात् प्राणायाममें निपुण होता है वह कामरूपी विष पर १. -णलए भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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