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धर्मामृत ( अनगार ) कृत्वेर्यापथसंशुद्धिमालोच्यानम्रकाङ्घ्रिदोः । नत्वाऽऽश्रित्य गुरोः कृत्यं पर्यस्थोग्रमङ्गलम् ॥१९॥ उक्त्वाऽऽत्तसाम्यो विज्ञाप्य क्रियामुत्थाय विग्रहम् ।
प्रह्वीकृत्य त्रिभ्रमैकशिरोविनतिपूर्वकम् ॥२०॥ दर्शनस्तोत्रं-दर्शने भगवदवलोकनविषये दर्शनाय वा सम्यक्त्वाय दर्शनवद्वा सामान्यविषयत्वात् । ६ स्तोत्रं-स्तवनं 'दृष्टं जिनेन्द्रभवनं' इत्यादि सामान्यस्तवनजातम् ॥१८॥ ईर्यापथसंशुद्धि-ऐपिथिक
दोषविशुद्धिम् । 'पडिक्कमामि' इत्यादिदण्डकेन कृत्वा। आलोच्य-'इच्छामि' इत्यादिदण्डकेन निन्दागर्दीरूपामालोचनां कृत्वा। आनम्रकाङ्ग्रिदोः-समन्तात् साधुत्वेन नमन्मस्तकपादहस्तम् क्रियाविशेषणं चैतत् । आश्रित्य गुरोः कृत्यम्-गुरोधर्माचार्यस्य तद्रे देवस्याप्यग्रे देववन्दनां प्रतिक्रमणादिकं वा कृत्यमाश्रित्य 'नमोऽस्तु देववन्दनां करिष्यामि' इत्यादिरूपेणाङ्गीकृत्य । अग्रमङ्गलं-मुख्यमङ्गलं जिनेन्द्रगुणस्तोत्रं 'सिद्ध
सम्पूर्णभव्यार्थम्' इत्यादिरूपम् ॥१९।। आत्तसाम्य:--'खम्मामि सव्व जीवाणं' इत्यादिसूत्रोच्चारणेन प्रतिपन्न१२ सामायिकः ॥२०॥
मुक्ताशुक्त्यङ्कितकरः पठित्वा साम्यदण्डकम् ।
कृत्वावर्तत्रयशिरोनती भूयस्तनुं त्यजेत् ॥२१॥ भूयः-पुनः, साम्यदण्डकपाठान्तेऽपीत्यर्थः ॥२१॥ अथ श्लोकद्वयेन व्युत्सर्गध्यानविधिमुपदिशति
जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रोतिविकस्वरे। हृत्पङ्कजे प्रवेश्यान्तनिरुध्य मनसाऽनिलम् ॥२२॥ पृथग द्विद्वचेकगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः ।
नवकृत्वः प्रयोक्तवं दहत्यंहः सुधीर्महत् ॥२३॥ तीन बार नमस्कार करे और तीन प्रदक्षिणा करे। फिर वन्दना मुद्रा पूर्वक जिनदर्शन सम्बन्धी कोई स्तोत्र पढ़े। फिर 'पडिक्कमामि' मैं प्रतिक्रमण करता हूँ इत्यादि दण्डकको पढ़कर ईर्यापथ शुद्धि करे अर्थात् मार्गमें चलनेसे जो जीवोंकी विराधना हुई है उसकी शुद्धि करे, फिर 'इच्छामि' इत्यादि दण्डकके द्वारा निन्दा गर्दारूप आलोचना करे। फिर मस्तक, दोनों हाथ, दोनों पैर इन पाँच अंगोंको नम्र करके गुरुको नमस्कार करके उनके आगे अपने कृत्यको स्वीकार करे कि भगवन् ! मैं देववन्दना करता हूँ या प्रतिक्रमण करता हूँ। यदि गुरु दूर हों तो जिनदेवके आगे उक्त कार्य स्वीकार करना चाहिए। फिर पर्यकासनसे बैठकर जिनेन्द्र के गुणोंका स्तवन पढ़कर 'खम्भाभि सव्व जीवाणं' मैं सब जीवोंको क्षमा करता हूँ . इत्यादि पढ़कर साम्यभाव धारण करना चाहिए। फिर वन्दना क्रियाका ज्ञापन करके खड़े होकर शरीरको नम्र करके दोनों हाथोंकी मुक्ताशुक्ति मुद्रा बनाकर तीन आवर्त और एक नमस्कार पूर्वक सामायिक दण्डक पढ़ना चाहिए। सामायिक दण्डकके पाठ समाप्ति पर पुनः
तीन आवर्त और एक नमस्कार ( दोनों हाथ मुद्रापूर्वक मस्तकसे लगाकर ) करना चाहिए। इसके बाद शरीरसे ममत्व त्याग रूप कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥१७-२१॥
आगे दो इलोकोंके द्वारा कायोत्सर्गमें ध्यानकी विधि बतलाते हैं
कायोत्सर्गमें आनन्दसे विकसनशील हृदयरूपी कमल में मनके साथ प्राणवायुका प्रवेश कराकर और उसे वहाँ रोककर जिनमुद्राके द्वारा ‘णमोअरहंताणं' इत्यादि गाथाका ध्यान करे। तथा गाथाके दो-दो और एक अंशका अलग-अलग चिन्तन करके अन्त में
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