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________________ धर्मामृत (अनगार) अथाशक्तान प्रत्युपांशु वाचनिकं पञ्चनमस्कारजपमनुज्ञाय तस्य मानसिकस्य च पुण्यप्रसूतावन्तरमभिधत्ते वाचाऽप्युपांश व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः । पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत् ॥२४॥ वाचापि-अपिशब्दोऽसक्तान् प्रत्यनुज्ञां द्योतयति । उपांशु-यथाऽन्यो न शृणोति, स्वसमक्षमेवेत्यर्थः । ६ जप्यः-सर्वेनसामपध्वंक्षी पञ्चनमस्कारजप इत्यर्थः । शतगुणं-दण्डकोच्चारणादेः सकाशात् । यथाह 'वचसा वा मनसा वा कार्यो जप्यः समाहितस्वान्तः । शतगुणमाद्ये पुण्यं सहस्रगुणितं द्वितीये तु॥' [ सोम. उपा., ६०२ श्लो. ] पुनरप्याह "विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः । उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥' [ मनुस्मृति २।८५ ] ॥२४॥ अथ पञ्चनमस्कारमाहात्म्यं श्रद्धानोद्दीपनार्थमनुवदति अपराजितमन्त्रो वे सर्वविघ्नविनाशनः । मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मङ्गलं मतः ॥२५॥ स्पष्टम् ॥२५॥ मनके द्वारा विजय प्राप्त करता है, उसके समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, और शरीर स्थिर हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।२२-२३॥ जो उक्त प्रकारसे पंचनमस्कारमन्त्रका ध्यान करने में असमर्थ हैं उन्हें वाचनिक जप करनेकी अनुज्ञा देते हुए दोनोंसे होने वाले पुण्यबन्धमें अन्तर बताते हैं जो साधु उक्त प्राणायाम करनेमें असमर्थ हैं उन्हें कायोत्सर्गमें दूसरा न सुन सके इस प्रकार वचनके द्वारा भी पंच नमस्कारमन्त्रका जप करना चाहिए। किन्तु दण्डक आदिके पाठसे जितने पुण्यका संचय होता है उसकी अपेक्षा यद्यपि वाचिक जापसे सौगुणा पुण्य होता है तथापि मानसिक जप करनेसे हजार गुणा पुण्य होता है ॥२४॥ विशेषार्थ-आचार्य सोमदेवने भी वाचनिक जपसे मानसिक जपका कई गुणा अधिक फल कहा है । यथा-'स्थिरचित्तवालोंको वचनसे या मनसे जप करना चाहिए। किन्तु पहलेमें सौगुणा पुण्य होता है तो दूसरेमें हजार गुणा पुण्य होता है।' नमहाराजका भी यही मत है। यथा-'विधियज्ञसे जपयज्ञ दसगना विशिष्ट होता है। किन्तु जपयज्ञ भी यदि वचनसे किया जाये तो सौगुना और मनसे किया जाये तो हजार गुना विशिष्ट माना गया है ॥२४॥ आगे मुमुक्षुजनोंके श्रद्धानको बढ़ानेके लिए पंचनमस्कार मन्त्रका माहात्म्य बतलाते हैं यह पंचनमस्कार मन्त्र स्पष्ट ही सब विघ्नोंको नष्ट करनेवाला है और सब मंगलोंमें मुख्य मंगल माना है ।।२५।। विशेषार्थ-मंगल शब्दके दो अर्थ होते हैं-'म' मलको जो गालन करता है-दूर करता है उसे मंगल कहते हैं। और मंग अर्थात् सुख और उसके कारण पुण्यको जो लाता है उसे मंगल कहते हैं। ये दोनों अर्थ पंचनमस्कार मन्त्रमें घटित होते हैं। उससे पापका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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