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नवम अध्याय
६५१
अपि च
जिणदेववंदणाए चेदियभत्तीय पंचगुरुभत्ती। तथा
अहिसेयवंदणा सिद्धचेदिय पंचगुरु संति भत्तीहिं।। प्रियभक्ति-समाधि भक्ति । दोषाः-वन्दनातिचारा रागादयो वा। उक्तं च
ऊनाधिक्यविशुद्धयर्थं सर्वत्र प्रियभक्तिकाः ॥१३॥ अथ कृतिकर्मणः षड्विधत्वमाचष्टे___ स्वाधीनता परीतिस्त्रयो निषद्या त्रिवारमावर्ताः।
द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम् ।।१४॥ परीतिस्त्रयी-प्रदक्षिणास्तिस्र इत्यर्थः। त्रयी निषद्या-आवृत्त्या त्रीण्यपवेशनानि क्रियाविज्ञापनचैत्यभक्तिपञ्चगुरुभक्त्यनन्तरालोचनाविषयाणि । त्रिवारं-चैत्यपञ्चगुरुसमाधिभक्तिषु त्रि:कायोत्सर्गविधानात् । १२ शिरांसि-मूर्धावनतयो वन्दना प्रधानभूता वा अर्हत्सिद्धसाधुधर्माः । उक्तं च सिद्धान्तसूत्रे
'आदाहिणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तिऊणदं चदुस्सिरं ।
बारसावत्तं चेदि ।।' [ षड्खण्डा. पु. १३, पृ. ८८ ] ॥१४॥ क्योंकि इससे आगमकी मर्यादाका अतिक्रमण होता है । आगममें पूजा और अभिषेकमंगलके समय ही ये चारों भक्तियाँ कही हैं-'जो तीनों सन्ध्याओंमें नित्य देववन्दना की जाती है वह चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्तिपूर्वक की जाती है। किन्तु पूजा और अभिषेकमंगलमें सिद्धभक्तिसे लेकर शान्तिभक्ति पर्यन्त चार भक्तियाँ की जाती हैं।' और भी कहा है'जिनदेवकी वन्दनामें चैत्यभक्ति और पंचगरुभक्ति की जाती है। तथा अभिषेक वन्दना, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्तिपूर्वक होती है।'
इससे प्रकट होता है कि पं. आशाधरजीके समयमें शास्त्रानुकूल आचारका पालन करनेवाले ऐसे भी मुनि थे जो देववन्दनामें चार भक्तियाँ करते थे। इसे पं. आशाधरजीने भक्तिरूपी पिशाचीका दुर्विलास कहा है। आजके कुछ मुनियोंमें तो ये दुर्विलास और भी बढ़ गया है, वे प्रतिदिन पंचामृताभिषेक कराते हैं। ऊपर जो पूजा अभिषेकमें चार भक्ति कही हैं वे श्रावकोंकी दृष्टिसे कही हैं। श्रावकोंका कृतिकर्म मुनियोंसे सर्वथा भिन्न नहीं था। चारित्रसारमें कहा है-ऊपर जो क्रिया कही हैं उन्हें यथायोग्य जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट श्रावकोंको और मुनियोंको करनी चाहिए। शास्त्रविहित कृतिकर्म त्यागियोंमें भी विस्मृत हो चुका है। पूजाके अन्तमें विसर्जनके नामसे जो शान्तिपाठ पढ़ा जाता है यह शान्तिभक्ति ही है ॥१३॥
कृतिकर्मके छह भेद कहते हैं
पूर्वाचार्योंने छह प्रकारका कृतिकर्म माना है--स्वाधीनता, परीति-प्रदक्षिणा तीन, तीन निषद्या, बारह आवर्त, और चार शिरोनति ॥१४॥
विशेषार्थ-वन्दना करनेवाला स्वाधीन होना चाहिए । वन्दनामें तीन प्रदक्षिणा तथा तीन निषद्या अर्थात् बैठना तीन बार होता है । क्रिया विज्ञापनके अनन्तर, चैत्यभक्तिके
१. 'एवमुक्ताः क्रिया यथायोग्यं जघन्यमध्यमोत्तमश्रावकैः संयतैश्च करणीयाः ।'
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