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________________ ३ १२ धर्मामृत (अनगार ) अथ जिनचैत्यवन्दनायाः प्रचुरपुण्यास्रवणपूर्वपुण्योदयस्फारीकरण प्राक्तनपापविपाकापकर्षणापूर्वपातकसंवरणलक्षणां फलचतुष्टयों प्रतिपाद्य सर्वदा तत्र त्रिसन्ध्यं मुमुक्षुवर्गमुद्यमयन्नाह - दृष्ट्वाहंत्प्रतिमां तदाकृतिमरं स्मृत्वा स्मरंस्तद्गुणान् रागोच्छेदपुरःसरानतिरसात् पुण्यं चिनोत्युच्चकैः । तत्पाकं प्रथयत्यधं क्रशयते पाकाद् रुणद्वयाश्रवत् तच्चैत्यान्यखिलानि कल्मषमुषां नित्यं त्रिशुद्धया स्तुयात् ||१५|| ६५२ तदाकृति - अर्हमूर्तिम् । तल्लक्षणं यथा'शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ॥' [ ] अरं - झटिति । अर्हत्प्रतिमादर्शनान्तरमेव । स्मरन्नित्यादि । उक्तं च'वपुरेव तवाचष्टे भगवन् वीतरागताम् । न हि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वलः ॥' [ J अघमित्यादि - पापपाकमल्पी करोतीत्यर्थः । रुणद्वयास्रवत् - पापं संवृणोतीत्यर्थः । कल्मषमुषांघातिचतुष्टयलक्षणं स्वपापमपहृतवताम् बन्दारुभव्यजनानां वा दुष्कृतमपहरताम् ॥१५॥ अनन्तर और पंच गुरु भक्तिके अनन्तर आलोचना करते समय बैठना होता है । क्योंकि चैत्यभक्ति पंचगुरुभक्ति और समाधिभक्तिमें तीन कायोत्सर्ग किये जाते हैं। तथा एक कृतिकर्म में बारह आवर्त और चार शिरोनति होती है । इनके सम्बन्धमें पहले लिख आये हैं ||१४|| आगे जिनचैत्यवन्दनाके चार फल बतलाकर उसमें सर्वदा तीनों सन्ध्याओंको प्रवृत्त होनेका मुमुक्षु वर्गसे आग्रह करते हैं 1 अर्हन्तकी प्रतिमाको देखकर तत्काल अर्हन्तकी शरीराकृतिका स्मरण होता है । उसके साथ ही भक्ति उद्रेकसे अर्हन्त भगवान् के वीतरागता, सर्वज्ञता, हितोपदेशिता आदि गुणोंका स्मरण होता है । उनके स्मरणसे सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंका बहुतायत से बन्ध होता है, जो पुण्य प्रकृतियाँ उदयमें आनेवाली हैं उनमें अनुभागकी वृद्धि होती है, बँधे हुए पापकर्मों में स्थिति अनुभागकी हानि होती है । नवीन पापबन्ध रुकता है । अतः जिन्होंने अपने चार घातिकर्म रूपी पापको दूर कर दिया है और जो वन्दना करनेवाले भव्य जीवों के भी पापको दूर करते हैं उन उन अर्हन्तोंकी कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओंकी मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक नित्यवन्दना करनी चाहिए ॥१५॥ 'विशेषार्थ - जो चार घातिकर्मोंको नष्ट करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टयसे सहित होते हैं उन्हें अर्हन्त कहते हैं । अन्त प्रतिमाको देखते ही सबसे प्रथम साक्षात् अर्हन्तके शरीरका और फिर उनके आत्मिक गुणोंका स्मरण आता है और दर्शकका मन आनन्दसे गद्गद और शरीर रोमांचित होता है । उसके मनकी ऐसी गुणानुराग दशा होनेसे चार कार्य उसकी अन्तरात्मा में होते हैं - प्रथम उसके सातिशय पुण्यका बन्ध होता है, उदयमें आनेवाले पापके फलमें कमी होती है और पुण्य में वृद्धि होती है, तथा नवीन पापकर्मोंका आस्रव नहीं होता। ऐसा होनेसे ही वन्दना करनेवालेके कष्टोंमें कमी होती है, सांसारिक सुखमें वृद्धि होती है, उसके मनोरथ पूर्ण होते हैं । इसे ही अज्ञानी कहते हैं कि भगवान् ने हमें यह दिया । किन्तु यदि वन्दना करनेवाला भावपूर्वक वन्दना नहीं करता तो उक्त चारों कार्य न होनेसे उसके मनोरथ सफल नहीं होते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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