SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 707
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५० धर्मामृत ( अनगार) तच्च-योगिध्यानम् । स्वान्तस्थेम्ना-मनःस्थैर्येण । यथाह 'ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः॥ [ तत्त्वानु. श्लो. २१८ ] अपि च 'यद्विढमानं भुवनान्तराले धतुं न शक्यं मनुजामरेन्द्रैः। तन्मानसं यो विदधाति वश्यं ध्यानं स धीरो विदधाति वश्यम् ॥' [ तत्पथ:-परमात्मप्राप्त्युपायभूतम् । तत्पूजाकर्म-जिनेन्द्रवन्दनाम् । कर्मछिदुरं-कर्मणां ज्ञानावरणादीनां मनोवाक्कायक्रियाणां वा छिद्रं छेदनशीलमेकदेशेन तदपनेतृत्वात् । आसूत्रयन्तु रचयन्तु ॥१२॥ अथ त्रैकालिकदेववन्दनायाः प्रयोगविधिमाह त्रिसंध्यं वन्दने युञ्ज्याच्चैत्यपञ्चगुरुस्तुती। प्रियभक्ति बृहद्भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ॥१३॥ त्रिसन्ध्यमित्यादि। यत्पुनर्वृद्धपरम्परा व्यवहारोपलम्भात् सिद्धचैत्यपञ्चगुरुशान्तिभक्तिभिर्यथावसरं भगवन्तं वन्दमाना सुविहिताचारा अपि दृश्यन्ते तत्केवलं भक्तिपिशाचीदुर्ललितमिव मन्यामहे सूत्रातिवर्तनात् । सूत्रे हि पूजाभिषेकमङ्गल एव तच्चतुष्टयमिष्टम् । तथा चोक्तम् 'चैत्यपश्चगुरुस्तुत्या नित्या सन्ध्यासु वन्दना। सिद्धभक्त्यादिशान्त्यन्ता पूजाभिषेकमङ्गले ॥[ सहायतासे रहित है इसलिए वे केवली कहे जाते हैं और योगसे युक्त होनेसे सयोगी कहे जाते हैं। इस तरह अनादिनिधन आगममें उन्हें सयोगिजिन कहा है।' ____साधुगण इन्हीं परमात्माके अनन्त ज्ञानादि गुणोंकी भक्तिपूर्वक प्रातःकाल वन्दना करते हैं। इस वन्दनाके द्वारा वे अपने मन-वचन-कायको स्थिर करके अपने चित्तको ध्यानके योग्य बनाते हैं और फिर ध्यानके द्वारा स्वयं परमात्मा बन जाते हैं । अतः साधुओंको भी नित्य देववन्दना-भावपूजा अवश्य करनी चाहिए। द्रव्यपूजामें आरम्भ होता है वह उनके लिए निषिद्ध है। उनका तो मुख्य कार्य स्वाध्याय और ध्यान ही है । स्वाध्यायसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है और ज्ञानकी स्थिरताका ही नाम ध्यान है। तथा ध्यानकी स्थिरताको ही समाधि कहते हैं। यही समाधि साधुकी साधनाका लक्ष्य होती है। इसी समाधिसे उसे वह सब प्राप्त हो सकता है जो वह प्राप्त करना चाहता है ।।१२।।। त्रैकालिक देव वन्दनाकी विधि कहते हैं देववन्दना करते हुए साधुको तीनों सन्ध्याओंमें चैत्यवन्दना और पंचगुरुवन्दना करनी चाहिए। और वन्दनासम्बन्धी दोषोंकी या रागादि दोषोंकी विशुद्धिके लिए वन्दनाके अन्तमें बृहत् भक्तियोंमें से समाधिभक्ति करनी चाहिए ॥१३॥ विशेषार्थ-पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है कि आचारशास्त्रके अनुसार आचारका पालन करनेवाला सुविहिताचारी मुनि भी वृद्धपरम्पराके व्यवहारमें पाया जानेसे भगवान्की वन्दना करते समय सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्तिपूर्वक वन्दना करते हुए देखे जाते हैं इसे हम भक्तिरूपी पिशाचीका दुर्विलास ही मानते हैं १. 'ज्ञानमेव स्थिरीभूतं ध्यानमित्युच्यते बुधैः ।' 'ध्यानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति कथ्यते ।' [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy