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________________ नवम अध्याय ६४९२ 'सिद्धनिषेधिकावीर-जिनभक्तिप्रतिक्रमे। योगिभक्तिः पुनः कार्या योगग्रहणमोक्षयोः ॥ [ ] ॥११॥ अथ साधून् प्राभातिकदेववन्दनां प्रति प्रोत्साहयन्नाह योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः स तच्च ___ स्वान्तस्थेम्नैव साध्यं तदमलमतयस्तत्पथध्यानबीजम् । चित्तस्थैर्य विधातं तदनवधिगुणग्रामगाळानुरागं तत्पूजाकर्म कर्मच्छिदुरमिति यथासूत्रमासूत्रयन्तु ॥१२॥ स:-परमागमप्रसिद्धः । तद्यथा 'केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललझुग्गम सुजणियपरमप्पववएसो ॥ असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण । जुत्तो त्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो।।' [ गो. जी., गा. ६३-६४] १२ विशेषार्थ-प्रतिक्रमण सिद्धभक्ति आदि चार भक्तिपाठ पूर्वक किया जाता है और रात्रियोगधारण करते समय योगिभक्ति की जाती है । और समाप्ति भी योगिभक्तिपूर्वक की जाती है ।।१।। आगे साधुओंको प्रातःकालीन देववन्दनाके लिए उत्साहित करते हैं 'जिसके अत्यन्त स्पष्ट केवलज्ञानमें लोक और अलोकके पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, वह परमात्मा योगियोंके एकमात्र ध्यानके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। और योगियोंका वह ध्यान चित्तकी स्थिरता के द्वारा ही साधा जा सकता है। इसलिए निमल बुद्धिवाले साधुजन परमात्मपदकी प्राप्तिके उपायभूत धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बीजरूप चित्तकी स्थिरताको करनेके लिए जिनेन्द्र के अनन्त गुणों के समूह में दृढ़ भक्तिको लिये हुए आगमके अनुसार उस पूजा कर्मको इसलिए कर क्योंकि वह मन-वचन-कायकी क्रियाका निरोधक होनेसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंका भी एकदेशसे छेदक होता है।' विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान्की वन्दनाको या विनयको ही पूजा कहते हैं। साधुगण भावपूजा ही करते हैं। भावपूजाका लक्षण इस प्रकार है-'समस्त आत्माओंमें पाये जानेवाले विशुद्ध जैन गुणोंका जिनेन्द्रदेवके गुणोंको अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेको भावपूजा कहते हैं ॥१२॥ इस भावपूजाके द्वारा परमात्माके गुणोंका भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेसे मन-वचनकायकी क्रियाका निरोध होने के साथ चित्त स्थिर होता है और चित्तके स्थिर होनेसे ही साधु उस धर्मध्यान और शुक्लध्यानको करने में समर्थ होता है जिस एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यानके द्वारा परमात्माका ध्यान करते हुए स्वयं परमात्मा बन जाता है। उस परमात्माका स्वरूप इस प्रकार कहा है-'केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंके समूहसे जिनका अज्ञानभाव पूरी तरह नष्ट हो गया है, और नौ केवललब्धियोंके प्रकट होनेसे जिन्हें 'परमात्मा' नाम प्राप्त हो गया है। उनका ज्ञान और दर्शन आत्माके सिवाय इन्द्रिय आदि किसी भी अन्यकी १. 'व्यापकानां विशुद्धानां जनानामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ॥'[ ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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