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धर्मामृत (अनगार) दुनिवार-प्रमादारि-प्रयुक्ता दोषवाहिनी।
प्रतिक्रमणदिव्यास्त्रप्रयोगावाशु नश्यति ॥९॥ उक्तं च__ 'जीवे प्रमादजनिताः प्रचुराः प्रदोषा यस्मात् प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयान्ति ।
तस्मात्तदर्थममलं मुनिबोधनार्थं वक्ष्ये विचित्रभवकर्मविशोधनार्थम् ।।' [ ]॥९॥ अथ प्रमादस्य महिमानमुदाहरणद्वारेण स्पष्टयति
व्यहादवैयाकरणः किलेकाहादकार्मुको।
क्षणादयोगी भवति स्वभ्यासोऽपि प्रमादतः ॥१०॥ किल-लोके ह्येवं श्रूयते । अकार्मुकी-अधानुष्कः ॥१०॥ अथ प्रतिक्रमणाया रात्रियोग-प्रतिष्ठापन-निष्ठापनयोश्व प्रयोगविधिमभिधत्ते
भक्त्या सिद्ध-प्रतिक्रान्तिवीरद्विद्वादशाहताम् ।
प्रतिक्रामेन्मलं योगं योगिभक्त्या भजेत् त्यजेत् ॥११॥ द्विद्वादशाहंतः-चतुर्विंशतितीर्थकराः। योग-अद्य रात्रावत्र वसत्यां स्थातव्यमिति नियमविशेषम् । भजेत्-प्रतिष्ठापयेत् । त्यजेत्-निष्ठापयेत् ।
उक्तं च
दुर्निवार प्रमादरूपी शत्रुसे प्रेरित अतीचारोंकी सेना प्रतिक्रमणरूपी दिव्य अस्त्रके प्रयोगसे शीघ्र नष्ट हो जाती है ॥९॥
विशेषार्थ-अच्छे कार्यों में उत्साह न होनेको प्रमाद कहते हैं। यह प्रमाद शत्रुके समान है क्योंकि जीवके स्वार्थ उसके कल्याणके घातक है। जब यह प्रमाद दुनिवार हो जाता है, उसे दूर करना शक्य नहीं रहता तब इसीकी प्रेरणासे ब्रतादिमें दोषोंकी बाढ़ आ जाती है-अतीचारोंकी सेना एकत्र हो जाती है। उसका संहार जिनदेवके द्वारा अर्पित प्रतिक्रमण रूपी अस्त्रसे ही हो सकता है। प्रतिक्रमण कहते ही हैं लगे हुए दोषोंके दूर करनेको। कहा है क्योंकि जीवमें प्रमादसे उत्पन्न हुए बहुतसे उत्कृष्ट दोष प्रतिक्रमणसे नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मुनियोंके बोधके लिए और नाना प्रकारके सांसारिक कर्मोकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण कहा है ॥९॥
आगे उदाहरणके द्वारा प्रमाद की महिमा बतलाते हैं
लोकमें ऐसी कहावत है कि प्रमाद करनेसे व्याकरणशास्त्रमें अच्छा अभ्यास करने-' । वाला भी वैयाकरण तीन दिनमें अवैयाकरण हो जाता है अर्थात् केवल तीन दिन व्याकरण- . का अभ्यास न करे तो सब भूल जाता है। एक दिनके अभ्यास न करनेसे धनुष चलानेमें . निपुण धनुर्धारी नहीं रहता, और योगका अच्छा अभ्यासी योगी यदि प्रमाद करे तो एक ही क्षणमें योगीसे अयोगी हो जाता है ॥१०॥ __ आगे प्रतिक्रमण और रात्रियोगके स्थापन और समाप्तिकी विधि बतलाते हैं
सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीरभक्ति और चौबीस तीर्थंकरभक्तिके द्वारा अतीचारको विशद्धि करनी चाहिए। और 'मैं आज रात्रिमें इस वसतिकामें ठहरूँगा' इस रात्रियोगको योगिभक्तिपूर्वक ही स्थापित करना चाहिए और योगिभक्तिपूर्वक ही समाप्त करना चाहिए ॥११॥
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