SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 704
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम अध्याय ६४७ अपि च 'स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् । ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते ।।' [ तत्त्वानु., श्लो.] एतदेव च स्वयमप्यन्वाख्यं सिद्धयङ्कमहाकाव्ये, यथा 'परमसमयसाराभ्याससानन्दसर्पत् सहजमहसि सायं स्वे स्वयं स्वं विदित्वा । पुनरुदयदविद्यावैभवाः प्राणचार स्फुरदरुणविभूता योगिनो यं स्तुवन्ति ।।' लातं-गृहीतम् । निशीथे-अर्धरात्रे ॥७॥ अथ परमागमव्याख्यानाधुपयोगस्य लोकोत्तरं माहात्म्यमुपवर्णयति खेद-संज्वर-संमोह-विक्षेपाः केन चेतसः। क्षिप्येरन् मक्षु जेनी चेन्नोपयुज्येत गोः सुधा ॥८॥ संज्वरः-संतापः । बाह्या अप्याहः 'क्लान्तमपोज्झति खेदं तप्तं निर्वाति बुध्यते मूढम् । स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभाषितं चेतः ॥' [ ] ॥८॥ अथ प्रतिक्रमणमाहात्म्यमनुसंधत्तेइन्द्रिय, आत्मा, मन और श्वास सूक्ष्म अवस्था रूप हो जाते हैं। निद्राका यही लक्षण कहा है-'इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः' । शयनसे उठते ही साधु स्वाध्यायमें लग जाते हैं और जब दो घड़ी रात बाकी रहती हैं तो स्वाध्याय समाप्त करके किये दोषोंकी विशुद्धिके लिए प्रतिक्रमण करते हैं। उसके बाद रात्रियोग समाप्त करते हैं । आचार्य गुणभद्रने इसका वर्णन करते हुए लिखा है-जो यम और नियममें तत्पर रहते हैं, जिनकी आत्मा वाह्य विषयोंसे निवृत्त हो चुकी है, जो निश्चल ध्यानमें निमग्न रहते हैं, सब प्राणियोंके प्रति दयालु हैं, आगममें विहित हित और मित भोजन करते हैं, अतएव जिन्होंने निद्राको दूर भगा दिया है, और जिन्होंने अध्यात्मके सार शुद्ध आत्मस्वरूपका अनुभव किया है, ऐसे मुनि कष्ट समूहको जड़मूल सहित नष्ट कर देते हैं पूज्य रामसेनजीने भी कहा है-मुनिको स्वाध्यायसे ध्यानका अभ्यास करना चाहिए और ध्यानसे स्वाध्यायको चरितार्थ करना चाहिए। ध्यान और स्वाध्यायकीप्राप्तिसे परमात्मा प्रकाशित होता है अर्थात् स्वाध्याय और ध्यान ये दोनों परस्परमें एक दूसरेके सहायक हैं। और इन दोनोंके सहयोगसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ॥७॥ आगे परमागमके व्याख्यान आदिमें उपयोग लगानेका अलौकिक माहात्म्य कहते हैं यदि जिन भगवानकी वाणीरूपी अमृतका पान तत्काल न किया जाये तो चित्तका खेद, सन्ताप, अज्ञान और व्याकुलता कैसे दूर हो सकते हैं ? अर्थात् इनके दूर करनेका सफल उपाय शास्त्रस्वाध्याय ही है ॥८॥ आगे प्रतिक्रमणका माहात्म्य बतलाते हैं१. विज़म्भा यो-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy