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________________ अष्टम अध्याय ६४१ अथ परमार्थतो निसह्यसह्यो लक्षयति आत्मन्यात्मासितो येन त्यक्त्वा वाऽऽशास्य भावतः। निसह्यसौ स्तोऽन्यस्य तदुच्चारणमात्रकम् ॥१३३॥ आसितः-स्थापितः । सितो वा बद्धः । अन्यस्य-बहिरात्मनः । आशावतश्च । उक्तं च 'स्वात्मन्यात्मा सितो येन निषिद्धो वा कषायतः । निसही भावतस्तस्य शब्दोऽन्यस्य हि केवलः ।। आशां यस्त्यक्तवान् साधरसही तस्य भावतः । त्यक्ताशा येन नो तस्य शब्दोच्चारो हि केवलः ॥' [ अथवा 'निषिद्धचित्तो यस्तस्य भावतोऽस्ति निषिद्धिका । अनिषिद्धस्य तु प्रायः शब्दतोऽस्ति निषिद्धिका ।। आशया विप्रमुक्तस्य भावतोस्त्यासिका मता। आशया त्ववियुक्तस्य शब्द एवास्ति केवलम् ।।' [ ]॥१३३॥ अथ प्रकृतमुपसंहरन्नित्यनैमित्तिककृतिकर्मप्रयोग नियमयन्नाह इत्यावश्यकनिर्युक्ता उपयुक्तो यथाश्रुतम् ।। प्रयुञ्जीत नियोगेन नित्यनैमित्तिकक्रियाः॥१३४॥ आवश्यकनिर्युक्ती-आवश्यकानां निरवशेषोपाये । यथाश्रुतं-कृतिकर्मशास्त्रस्य गुरुपर्वक्रमायातोपदेशस्य चानतिक्रमेण । नियोगेन-नियमेन । नित्येत्यादि-नित्यक्रियाश्च नैमित्तिकक्रियाश्चेति विगृह्य प्रथम- १८ क्रियाशब्दस्य गतार्थत्वादप्रयोगः । इति भद्रम् ॥१३४॥ इत्याशाधरदब्धायां धर्मामतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायामष्टमोऽध्यायः । अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं पञ्चसप्तत्यधिकानि षटशतानि । अंकतः ६७५ । २१ प्रवेश करना चाहिए और 'आसही' शब्दके द्वारा उससे पूछकर ही वहाँसे बाहर जाना चाहिए ॥१३२॥ आगे परमार्थ दृष्टिसे निसही और आसहीका अर्थ बतलाते हैं जिस साधुने अपने आत्माको अपने आत्मामें ही स्थापित किया है उसके निश्चयनयसे निसही है। तथा जिसने इस लोक आदिकी अभिलाषाओंको त्याग दिया है उसके निश्चयनयसे आसही है। किन्तु जो बहिरात्मा है और जिन्हें इस लोक आदि सम्बन्धी आशाओंने घेरा हुआ है उनका निसही और आसही कहना तो शब्दका उच्चारण मात्र करना है ।।१३३॥ अन्त में प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए साधुओंको नित्य और नैमित्तिक कृतिकर्मको करने की प्रेरणा करते हैं उक्त प्रकारसे आवश्यकोंके सम्पूर्ण उपायोंमें सावधान साधुको कृतिकर्मका कथन करनेवाले शास्त्र तथा गुरुपरम्परासे प्राप्त उपदेशके अनुसार नियमसे नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंको करना चाहिए ॥१३४॥ इस प्रकार आशाधर विरचित स्वोपज्ञ धर्मामृतके अन्तर्गत अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिकाटीका तथा ज्ञानदीपिका पंजिका अनुसारिणी हिन्दी टीकामें आवश्यक निर्युक्त नामक अष्टम अध्याय समाप्त हुआ। ८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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