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धर्मामृत ( अनगार ) अथ संपूर्णेतरषडावश्यकसम्यग्विधाने पुरुषस्य निःश्रेयसाभ्युदयप्राप्ति फलतयोपदिशति
समाहितमना मौनी विधायावश्यकानि ना।
संपूर्णानि शिवं याति सावशेषाणि वै दिवम् ॥१२९॥ ना-द्रव्यतः पुमानेव । सावशेषाणि-कतिपयानि हीनानि च अशक्त्यपेक्षयैतत् । यवद्धाः
'जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्कइ तं च सद्दहणं ।
सद्दहमाणो जीवो पावइ अजरामरट्ठाणं ।' [ ] वै-नियमेन । उक्तं च
'सर्वैरावश्यकैयुंक्तो सिद्धो भवति निश्चितम् ।
सावशेषैस्तु संयुक्तो नियमात् स्वर्गगो भवेत् ॥' [ ] ॥१२९।। अथ षडावश्यकक्रिया इव सामान्या अपि क्रिया नित्यं साधुना कार्या इत्युपदिशति
आवश्यकानि षट् पञ्च परमेष्ठिनमस्क्रियाः।
निःसही चासही साधोः क्रियाः कृत्यास्त्रयोदश ॥१३०॥ स्पष्टम् ॥१३०॥ अथ भावतो अहंदादिनमस्कारपञ्चकस्य फलमाह
योऽर्हत्सिद्धाचार्याध्यापकसाधून नमस्करोत्यर्थात् ।
प्रयतमतिः खलु सोऽखिलदुःखविमोक्षं प्रयात्यचिरात् ॥१३१॥ स्पष्टम् ॥१३॥ अथ निसह्यसहीप्रयोगविधिमाह
वसत्यादौ विशेत् तत्स्थं भूतादि निसहीगिरा।
आपृच्छय तस्मानिर्गच्छेत्तं चापृच्छ्यासहीगिरा ॥१३२॥ आपृच्छय-संवाद्य । उक्तं च
'वसत्यादिस्थभूतादिमापृच्छय निसहीगिरा। वसत्यादी विशेत्तस्मान्निगच्छेत् सोऽसहीगिरा ।।' [ ]॥१३२॥
आगे सम्पूर्ण छह आवश्यकोंका सम्यक् पालन करनेवालेको मोक्षकी और एकदेश पालन करनेवालेको अभ्यदयकी प्राप्तिरूप फल बतलाते हैं
____ एकाग्रचित्त और मौनपूर्वक सामायिक आदि सम्पूर्ण आवश्यकोंका सम्यक् रीतिसे पालन करनेवाला पुरुष मोक्ष जाता है और अशक्त होनेके कारण कुछ ही आवश्यकोंका सम्यक् रीतिसे पालन करनेवाला महर्धिक कल्पवासी देव होता है ।।१२९।।
आगे कहते हैं कि साधुको छह आवश्यक क्रियाओं की तरह सामान्य क्रिया भी नित्य करनी चाहिए
___ छह आवश्यक, पाँच परमेष्ठियोंको नमस्कार रूप पाँच, एक निःसही और एक आसही ये तेरह क्रियाएँ साधुको करनी चाहिए ॥१३०॥
भावपूर्वक अर्हन्त आदि पाँचको नमस्कार करनेका फल बतलाते हैं
जो प्रयत्नशील साधु या श्रावक अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुको भाव. पूर्वक नमस्कार करता है वह शीघ्र ही चार गति सम्बन्धी सब दुःखोंसे छूट जाता है ।।१३।।
आगे निःसही और असहीके प्रयोगकी विधि बतलाते हैंमठ, चैत्यालय आदिमें रहनेवाले भूत, यक्ष आदिको निःसही शब्दके द्वारा पूछकर
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