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________________ अष्टम अध्याय ६३९ आवेद्य-चैत्यभक्तिकायोत्सर्गकरोम्यहमित्यादिरूपेण सप्रश्रयं विज्ञाप्य । आनम्य स्थितःशरीरावनतिं कृत्वा पुनरुद्धोभूतः सन्नित्यर्थः। आदित्यादि-आरम्भे समाती चावर्तत्रयानन्तरप्रयुक्तमेकं शिरोनमनं यत्रेत्यर्थः । उक्तभक्ति:-पठितवन्दनाकल्पः । आलोचयेत् -'इच्छामि भंते चेइयभत्ति काउस्सग्गो ३ कओ तस्सालोचेउ' इत्यादि प्रसिद्धनिगदमुच्चारयंस्तदर्थ मनसा विचिन्तयेत् । सर्वतः-सर्वासु भक्तिषु । ॥१२७॥ अथ सम्यक् षडावश्यकानुष्ठातुश्चिह्ननिर्णयार्थमाह शृण्वन् हृष्यति तत्कथां धनरवं केकीव मूकैडतां तद्गहेऽङ्गति तत्र यस्यति रसे वादीव नास्कन्दति । क्रोधादीन् जिनवन्न वैद्यपतिवद् व्यत्येति कालक्रम निन्द्यं जातु कुलीनवन्न कुरुते कर्ता षडावश्यकम् ॥१२८॥ तत्कथां-षडावश्यकवार्ताम् । मूकैडतां-मौनं बधिरत्वं च । अङ्गति-गच्छति । तद्गर्हेस्वयं न गर्हते षडावश्यकं नाप्यन्येन गर्घमाणं शृणोतीत्यर्थः । यस्यति--प्रयतते। वादी-धातुवादी। १२ जिनवत्-क्षीणकषायो यथा। कर्ता-साधुत्वेन कुर्वाणः । उक्तं च 'तत्कथाश्रवणानन्दो निन्दाश्रवणवर्जनम् । अलुब्धत्वमनालस्यं निन्द्यकर्मव्यपोहनम् ॥ कालक्रमाव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जवम् । विज्ञेयानीति चिह्नानि षडावश्यककारिणः ॥' [ ] ॥१२८॥ सविनय नमस्कारपूर्वक निवेदन करना चाहिए कि मैं चैत्यभक्ति कायोत्सर्गको करता हूँ। फिर खड़े होकर आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक नमस्कारपूर्वक सामायिक दण्डकको पढ़े । अर्थात् सामायिक दण्डक प्रारम्भ करनेसे पहले तीन आवर्त पूर्वक एक नमस्कार करे और दण्डक समाप्त होनेपर भी तीन आवर्तपूर्वक एक नमस्कार करे। फिर कायोत्सर्गपूर्वक पंचपरमेष्ठीका स्मरण करे । फिर सामायिक दण्डककी तरह ही अर्थात् आदिअन्तमें तीन-तीन आवर्त और एक नमस्कारपूर्वक 'थोस्सामि' इत्यादि स्तवदण्डकको पढ़कर वन्दना पाठ करे। फिर बैठकर 'इच्छामि भंते चेइयभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्स आलोचेअं' इत्यादि पढ़कर आलोचना करे ॥१२७॥ सम्यक् रीतिसे छह आवश्यकोंको करनेवालेके चिह्नोंको बतलाते हैं जैसे मयूर मेघके शब्दको सुनकर नाचने लगता है वैसे ही छह आवश्यकोंका पालक भी छह आवश्यकोंकी चर्चा-वार्ता सुनकर आनन्दित होता है। यदि कोई उनकी निन्दा करता है तो गूंगा-बहरा हो जाता है अर्थात् न तो वह स्वयं छह आवश्यकोंकी निन्दा करता है और यदि दूसरा कोई करता है तो उसे सुनता भी नहीं है। तथा जसे धातुवादी पारेमें यत्नशील रहता है वैसे ही वह छह आवश्यकोंमें सावधान रहता है। तथा जैसे क्षीण कषाय, क्रोध आदि नहीं करता वैसे ही वह भी क्रोध आदि नहीं करता। तथा जैसे वैद्य रोगी और निरोगीके प्रति वैद्यक शास्त्रमें कहे गये काल और क्रमका उल्लंघन नहीं करता वैसे ही छह आवश्यकोंका पालक भी शास्त्रोक्त काल और विधि का उल्लंघन नहीं करता। तथा जैसे कुलीन पुरुष कभी भी निन्दनीय कार्य नहीं करता वैसे ही छह आवश्यकोंका पालक भी लोक और आगमके विरुद्ध कार्य नहीं करता ।।१२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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