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________________ ६३८ धर्मामृत ( अनगार) 'स व्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने । जायते यस्य संतोषो जिनवक्तृविलोकने ।। परीषहसहः शान्तो जिनसूत्रविशारदः। सम्यग्दृष्टिरनाविष्टो गुरुभक्तः प्रियंवदः ।। आवश्यकमिदं धीरः सर्वकर्मनिसूदनम् । सम्यक् कतु मसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता ॥' [अमि. श्रा. ८1१९-२१]॥१२६॥ अथ मन्दमतिसुखप्रतिपत्तये क्रमवदिति विशेषणं विवृण्वन्नाह प्रेप्सुः सिद्धिपथं समाधिमुपविश्यावेद्य पूज्यं क्रिया मानम्यादिलयभ्रमजयशिरोनामं पठित्वा स्थितः। साम्यं त्यक्ततनुजिनान् समदृशः स्मृत्वावनम्य स्तवं युक्त्वा साम्यवदुक्तभक्तिरुपविश्यालोचयेत् सर्वतः ॥१२७॥ उत्साहयुक्त हो, परीषद, उपसर्ग आदिको सह सकता हो तथा जिसे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा न हो ॥१२६।। __ विशेषार्थ-कृतिकर्म करनेके योग्य कौन होता है उसमें क्या विशेषताएँ होनी चाहिए इसको यहाँ स्पष्ट किया है । उसका मन, वचन, काय पवित्र होना चाहिए । मनकी पवित्रताके लिए परिणामोंका विशुद्ध होना आवश्यक है। यदि मनमें भोगाकांक्षा है या अन्य सांसारिक कठिनाईयोंको दूर करनेका अभिप्राय है तो मन विशुद्ध नहीं हो सकता। उसके लिए निष्काम भावनासे अर्हन्त सिद्ध आदि उपासनीय पवित्र आत्माओंके स्वरूपमें मनका अत्यन्त अनुरागी होना चाहिए । यह अनुराग तभी होता है जब सांसारिक विषयोंके प्रति विरक्ति होती है। वचनकी शुद्धिके लिए जो पाठ पढ़ा जाये वह शुद्ध पढ़ा जाना चाहिए, उसमें अक्षर, पद आदिका उच्चारण शुद्ध हो, गुरुजनोंके साथ पढ़ना हो तो अपना बड़प्पन प्रकट करनेकी भावना नहीं होनी चाहिए। उनकी ज्येष्ठताको रखते हुए ही धीर-गम्भीर रूपमें पढ़ना चाहिए। शरीरकी शुद्धिके लिए बाह्य शुद्धि तो आवश्यक है ही, साथ ही अपनेसे आयुमें, ज्ञान में, आचारमें जो ज्येष्ठ हैं उनको उच्चस्थान देते हुए ही अपने योग्य आसनपर बैठना चाहिए। साधुसंघमें सब साधु मिलकर कृतिकर्म करते हैं उसीको दृष्टिमें रखकर यह कथन है। इन तीन शुद्धियोंके सिवाय कृतिकर्मका अधिकारी वही होता है जिसकी दृष्टि कृतिकर्मके केवल बाह्य रूपपर ही नहीं होती किन्तु जो बाह्य क्रियाके साथ आत्मज्ञानकी ओर भी संलग्न , होकर दोनोंका ही संग्रही होता है। इसीलिए उसे तात्त्विक होना चाहिए, तत्त्वको जाननेवाला-समझनेवाला होना चाहिए क्योंकि उसके बिना कोरे क्रियाकाण्डसे कोई लाभ नहीं है । जो ऐसा होता है वह निस्पृही तो होता ही है। तथा कृतिकर्मके अधिकारीको कृतिकर्म करते हुए कोई उपसर्ग-परीषह आदि आ जावे तो उसे सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। कष्टसे विचलित होनेपर कृतिकर्म पूरा नहीं हो सकता। जिस-किसी तरह आकुल चित्तसे पूरा भी किया तो व्यर्थ ही कहा जायेगा ॥१२६।। ___आगे मन्दबुद्धि जनोंको सरलतासे ज्ञान करानेके लिए कृतिकर्मकी क्रमविधि बतलाते हैं जो साधु या श्रावक मोक्षके उपायभूत रत्नत्रयकी एकाग्रतारूप समाधिको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें इस प्रकार कृतिकर्म करना चाहिए । सर्वप्रथम बैठकर पूज्य गुरु आदिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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